विद्यापीठ में राष्ट्रीय सेमिनार का समापन


विद्यापीठ में राष्ट्रीय सेमिनार का समापन

“हमारी धरोहर एवं इतिहास में व्याप्त हमारी परम्पराओं एवं तकनीकों को आप के परिपेक्ष्य में को पुर्नजीवित करे परिवर्तित नहीं; क्योंकि हमारा इतिहास के अध्ययन से यह तो साफ है कि हमारे पूर्वज अनादिकाल से ही पूर्ण विकसित जीवन यापन कर रहे थे चाहे विकसित ग्राम्य एवं शहरी जीवन हो चाहे भण्डारण की परम्परा हो चाहे वैज्ञानिक विधियां हो सभी के उपयोग के प्रमाण इतिहास के झरोखे में दिखते हैं”। - उक्त विचार म

 
विद्यापीठ में राष्ट्रीय सेमिनार का समापन

“हमारी धरोहर एवं इतिहास में व्याप्त हमारी परम्पराओं एवं तकनीकों को आप के परिपेक्ष्य में को पुर्नजीवित करे परिवर्तित नहीं; क्योंकि हमारा इतिहास के अध्ययन से यह तो साफ है कि हमारे पूर्वज अनादिकाल से ही पूर्ण विकसित जीवन यापन कर रहे थे चाहे विकसित ग्राम्य एवं शहरी जीवन हो चाहे भण्डारण की परम्परा हो चाहे वैज्ञानिक विधियां हो सभी के उपयोग के प्रमाण इतिहास के झरोखे में दिखते हैं”। – उक्त विचार मुख्य अतिथि प्रो. भवानी शंकर गर्ग, कुलाधिपति जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय ने इंस्ट्टियूट ऑफ राजस्थान स्टडीज साहित्य संस्थान में आयोजित संग्रहण की परम्परागत की तकनीक एवं कृषि पद्धतियों का विकास विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार के समापन कार्यक्रम में व्यक्त किये।

आयोजन सचिव डॉ. जीवनसिंह खरकवाल ने बताया कि कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. एस.एस. सांरगदेवात, विशिष्ट अतिथि प्रो. मनोहरसिंह राणावत, डॉ. लक्ष्मी नारायण नंदवाना, डॉ. प्रकाश शर्मा, डॉ. ललित पाण्डेय ने भी विचार व्यक्त किये; तथा खरकवाल ने बताया कि सेमिनार में कुल 77 शोध पत्रों का पत्रवाचन किया गया है। कार्यक्रम में डॉ. कुलशेखर व्यास, डॉ. प्रियदर्षी ओझा,डॉ. महेष आमेटा, डॉ. नीता कोठारी, तृप्ता जैन, अनिता पंचोली, रमेश प्रजापत भी उपस्थित थे।

पृथ्वीराज रासो भाग 1 का लोकापर्ण

सेमिनार में वृहद हिन्द-राजस्थानी महाकवि चन्दरवरदाई द्वारा रचित एवं डॉ. मनोहरसिंह राणावत एवं कविराव मोहन सिंह द्वारा संपादित पृथ्वीराज रासो भाग 1 का लोकापर्ण कुलाधिपति प्रो. भवानी शंकर गर्ग तथा प्रो. एस.एस. सांरगदेवोत ने किया।

साक्षात्कार

श्रीमियाजाकी, निदेशक मानव संसाधन एवं प्रकृति शोध संस्थान क्योटो, जापान ने बताया कि दक्षिणी एशिया व अफ्रिका में मुख्यतः राजस्थान के जल प्रबन्धन एवं मृदा व सामाजिक संरचना की तरीकों का परस्पर सम्पूर्ण वैश्विक शुष्क प्रदेशिय इलाकों में मुख्यतः जापान इण्डोनशिया आदि प्रदेशों में अपनाया गया एवं तकनीकी परिवर्तन के साथ आज भी समान रूप से कार्य हो रहा है।

डॉ. जिब्राइल हयात, एसिसटेन्ट प्रोफेसर दिल्ली विष्वविद्यालय ने बताया कि मध्यकालीन ग्रंथों के आधार पर जिसमें मारवाड़ के परगनों की विगत् के आधार पर मरूस्थल में तालाबों को जोड़ने एवं बूंद बूंद जल को संरक्षित करने हेतु तालाबों से जोड़ा गया साथ ही बेरियों में पानी पहुंचाकर उसके आसपास कृषि कार्य करने में उसका उपयोग किया जाता था।

डॉ. हयात ने बताया कि परम्परागत् पद्धतियों में राजस्थान में फलोदी तथा नागौर मुख्यतः शोध के क्षेत्र रहे हैं।

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