उदयपुर जिले से 1985 के बाद कोई निर्दलीय नहीं जीता


उदयपुर जिले से 1985 के बाद कोई निर्दलीय नहीं जीता

इसे मतदाताओं में लोकतन्त्र के प्रति समझ का बढऩा कहें या नेताओं में सर्वमान्य होने की ताकत का घटना, कि अब कोई भी नेता निर्विरोध चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक नहीं जाता। आठवें विधानसभा चुनाव तक उदयपुर जिले से दो विधायक निर्विरोध चुनकर विधानसभा में पहुंचे लेकिन उसके बाद निर्विरोध चयन होना तो दूर, दावेदारों की फेहरिश्त लगातार बढ़ रही है। निर्विरोध चयन केवल पंचायतती राज संस्थाओं में निचले स्तर तक सिमट कर रह गया

 
उदयपुर जिले से 1985 के बाद कोई निर्दलीय नहीं जीता

इसे मतदाताओं में लोकतन्त्र के प्रति समझ का बढऩा कहें या नेताओं में सर्वमान्य होने की ताकत का घटना, कि अब कोई भी नेता निर्विरोध चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक नहीं जाता। आठवें विधानसभा चुनाव तक उदयपुर जिले से दो विधायक निर्विरोध चुनकर विधानसभा में पहुंचे लेकिन उसके बाद निर्विरोध चयन होना तो दूर, दावेदारों की फेहरिश्त लगातार बढ़ रही है। निर्विरोध चयन केवल पंचायतती राज संस्थाओं में निचले स्तर तक सिमट कर रह गया है।

अतीत पर नजर डालें तो मेवाड़ में ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति पाने के लिए चेतना की चिंगारी देश के दूसरे हिस्सों के साथ ही फैली परन्तु 1947 में देश की स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रित अधिकारों को प्राप्त करने तथा उनका उपयोग करने की समझ मेवाड़ की जनता में कुछ देर से आई। आदिवासी बहुल मेवाड़ में शिक्षा की कमी, आर्थिक व सामाजिक पिछड़ापन एवं राजनीतिक जागरूकता का अभाव होने के कारण आजादी के बाद प्रदेश में हुए पहले विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत मात्र 27.4 प्रतिशत ही रहा। यही नहीं, जिले से दो विधायक निर्विरोध भी चुने गये।

उदयपुर जिले की सामान्य विधानसभा क्षेत्र सायरा से कांग्रेस के दीनबन्धु तथा सराड़ा-सलूम्बर सामान्य सीट से कांग्रेस के ही लक्ष्मण भील ने 1952 के पहले चुनाव में निर्विरोध चुनाव जीत कर विधानसभा तक का सफर तय किया। प्रदेश के पहले आम चुनाव होने के कारण आम नागरिकों को इसके बारे में यह ज्ञान नहीं था कि वोट देने या नहीं देने से क्या फर्क पड़ता है। अनेक लोग तो यहां तक कहते थे कि वोट देने से क्या लाभ मिलेगा। उनको विधानसभा का महत्व ही पता नहीं था।

इसी कारण पहले आम चुनाव 1952 में जिले से दो विधायक निर्विरोध चुन कर विधानसभा पहुंच गये। जिले से पहले विधानसभा चुनाव 1952 में खमनोर विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार श्योदान सिंह विजयी रहे। उस समय जनता को सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका क्या होती है, इसका पूर्ण ज्ञान नहीं था। अन्यथा प्रथम चुनाव में ही निर्दलीय प्रत्याशी को विधायक नहीं चुना जाता।

निर्दलीय प्रत्याशी श्योदान सिंह ने कांग्रेस के उम्मीदवार नंदलाल को एक हजार 840 मतों से हराया था। इसी तरह 1957 के विधानसभा चुनाव में भीम विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार फतह सिंह ने कांग्रेस की लोकप्रिय उम्मीदवार लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत को दो हजार 444 मतों से पराजित किया।

उदयपुर जिले की मावली विधानसभा सीट से 1972 के चुनाव में मेवाड़ के लोकप्रिय नेता निरंजननाथ आचार्य ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के सुन्दरलाल चेचाणी को 25 हजार 427 मतों से मात दी थी जो अपने आप में रिकार्ड था। आचार्य जनता से सम्पर्क करने की अपनी शैली के कारण इतने अधिक मतों से गैर कांग्रेसी टिकट पर विजयी हुए। उस जमाने में कांग्रेस के अलावा नागरिक दूसरे किसी दल को पसंद नहीं करते थे।

आचार्य ग्रामीणों के यहां बिना बुलाये शादी, समारोह, मौत-मरण, देवरों की परसादी में आम जनता के साथ जाजम पर बैठकर उनके सुख-दुख में साथ रहते थे। सम्पर्क की इसी शैली को आज अधिकांश राजनीतिक नेताओं ने अपना लिया है।

छठे विधानसभा चुनाव 1977 में मेवाड़ भी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलता नजर आया। इंदिरा विरोधी लहर के कारण जिले की सभी 14 विधानसभा सीटों पर जनता पार्टी का कब्जा हो गया। यह चुनाव दर्शाता है कि मेवाड़ की जनता भी देश की राजनैतिक परिस्थितियों से अछूती नहीं रही। सत्तर के दशक के आते-आते अपना जनप्रतिनिधि कैसा हो, इसकी आम वोटर को समझ आ गई।

वर्ष 1985 के चुनाव में खेरवाड़ा से कांग्रेस ने जुझारु नेता दयाराम परमार को टिकट नहीं दिया। परिणाम स्वरूप परमार ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और कांग्रेस प्रत्याशी रूपलाल को 235 मतों से हराया। यह जनता में उनके द्वारा किये गये कामों की परिणति थी।

आठवें विधानसभा चुनाव 1985 के बाद जिले से आज तक कोई भी निर्दलीय उम्मीदवार चुनकर विधानसभा नहीं पहुंच सका। मेवाड़ की जनता अब इतनी परिपक्व हो चुकी है कि वह सत्ता व विपक्ष की भूमिका को समझने लगी है। आजादी के 65 साल बाद आज हम कह सकते हैं कि मेवाड़ मे जनतंत्र मजबूत हो रहा है। वोटर अपने वोट का महत्व समझने लगा है।

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