कोई कर्म बलवान और बाधक नहीं हैं
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, सेक्टर 4, धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि कर्मोदय को बलवान मानकर, तद्नुसार कार्य क्रिया प्रवृति करते ही पुनः कर्मो का बंध हो जाता है। आत्मा अनन्त वीर्यवान है। पूर्वबद्व कर्म का अनुकूल प्रतिकूल फल तो आएगा उसे न चखे और आत्मध्यान में लीन रह जाए तो वह निर्जरित हो जता है।
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, सेक्टर 4, धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि कर्मोदय को बलवान मानकर, तद्नुसार कार्य क्रिया प्रवृति करते ही पुनः कर्मो का बंध हो जाता है। आत्मा अनन्त वीर्यवान है। पूर्वबद्व कर्म का अनुकूल प्रतिकूल फल तो आएगा उसे न चखे और आत्मध्यान में लीन रह जाए तो वह निर्जरित हो जता है।
गजसुकुमाल अणगार ने निन्यानवे लाख भव पूर्व जो निकाचित कर्म बांधा, ध्यान अवस्था में सिर पर अंगारे और तीव्रतम वेदना के रूप में फल परिणक आया। वे आत्मानुभव में लीन थे। स्वात्मा का ही जानना दोवना रमण करना चल रहा था। तब न सोमिल पर ध्यान था न सिर पर ध्यान था। नप शरीर के माध्यम से होने वाली वेदना का अनुभव कर रहे थे। तीव्रतम वेदना से दुखी हुए ही नहीं। अतः सर्व कर्म निर्जरित हो गए और केवल ज्ञान दर्शन हो गया, मोक्ष चले गए।
कर्म निमित के अनुसार कार्य क्रिया प्रतिक्रिया करना ही कर्म का वेदना भोगना हैं। भोगे तो बांधे न भोगे तो छूटे। अतः कर्म मुक्ति का एकमात्र उपाय है कर्म निमित के अनुसार मत करो। वीतराग वचन के अनुसार चलो तो मुक्त हो जाओगे। मानों कि जीव कर्म बांधने में भी स्वतंत्र है, भोगने में भी स्वतंत्र हैं। आत्मा अत्यन्त बलवान है, उससे कर्म को परास्त कर दो। उसके आगे घुटने मत टेको, रण छोड़दास मत बनो।
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