महान् आध्यात्मिक विभूति आचार्य श्री कनकनन्दी जी गुरुदेव द्वारा उत्तम आकिञ्चन्य धर्म का महान्-सूक्ष्य आध्यात्मिक रहस्य प्रतिपादन किया गया। हर धर्म मेंं जीव की सर्वोच्च साधना अवस्था निग्र्रन्थ-जिनलिंग ही है क्योंकि जीव जब तक सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेष-आसक्ति-विषय-कषायों से पूर्णत: निवृत्त नहीं होता तब तक जीव को मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती।
आकिञ्चन्य का अर्थ भी यही है कि मेरा आत्मा को छोडक़र अन्य ब्राह्य शरीर-इन्द्रिय-मन आदि मेरे नहीं है। शरीर से परे होने पर ही आकिञ्चन्य अवस्था अर्थात् सिद्ध अवस्था की प्राप्ति सम्भव है। अत: जो भी सुखाकांक्षी जीव जिन्हें परम शाश्वतिक अनन्त सुख की प्राप्ति करनी हो उन्हें आकिञ्चन्य धर्म का पालन करना ही होगा राग-द्वेष-विषय-कषाय-परिग्रह आदि विकास संसार सागर में डूबने के लिए पत्थर के समान है। क्षमा से लेकर त्याग आदि धर्म इस आध्यात्मिक स्वरूप को प्राप्त करने के सोपान हैं।