बच्चों की मौत से जुड़े सवाल
बीते लोकसभा चुनावों में और अभी गुजरात विधानसभा चुनाव में गुजरात की समृद्धि की गाथाएं सुनाई जा रही हैं। यह कैसी तरक्की है? यह कैसा विकास है? यह कैसी गौरव गाथाएं हैं? जहां ऐसे बच्चे पैदा हो रहे हैं जिनका वजन बहुत कम है। जहां आज भी आदिवासी क्षेत्रों में बीमार व्यक्ति को लाने-लेजाने की सुविधा नहीं है, चार व्यक्ति खाट (पलंग) पर मरीज को ढ़ोकर ले जाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि गुजरात का ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्र अब भी कहीं ज्यादा उपेक्षित है और उसकी भी हालत शायद ओडिशा, छत्तीसगढ़ या झारखंड के ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों जैसी ही है।
गुजरात में विधानसभा चुनावों की गहमागहमी के बीच अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में 24 घंटों के बीच आईसीयू में 9 नवजात शिशुओं की मौत पर हड़कम्प मच गया है। बदइंतजामी की वजह से अगस्त में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृहनगर गोरखपुर के बीआरडी चिकित्सालय में तीन-चार दिनों के अंदर तीस से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी, जिसकी चर्चा पूरे देश में हुई थी। इसके बाद महाराष्ट्र के नासिक में पचपन बच्चों की मौत हुई। इतनी बड़ी संख्या में और बार-बार बच्चों की मौत न सिर्फ दुखदायी है बल्कि चिकित्सा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाती है। यह हमारी न केवल नाकामी को दर्शाता है बल्कि इसने सम्पूर्ण चिकित्सा व्यवस्था की क्षमता, कुशलता और सोच को धुंधला दिया है। यह विडम्बना है कि विभिन्न क्षेत्रों में विकास के बावजूद हम स्वास्थ्य के मोर्चे पर पिछडे़ हुए हैं। यह पिछड़ापन इस हद तक है कि हम अपने बच्चों की जान नहीं बचा पा रहे हैं, उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा नहीं दे पा रहे हैं। गौरखपुर के बाद अहमदाबाद और नासिक में बच्चों की सामूहिक मौत होना यही सिद्ध करता है कि सरकारें और अधिकारी पुरानी घटनाओं से कोई सबक नहीं लेते। अपनी कमियों एवं कमजोरियों से सबक नहीं लेती। इस बात को अगर दरकिनार कर दिया जाए कि किस पार्टी की सरकार है या नहीं है, तो भी यह सवाल बनता है कि इसकी जिम्मेदारी क्यों न तय की जाए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गुजरात से विशेष जुड़ाव है और यह माना जाता है कि गुजरात में उन्होंने विकास का एक अनूठा माॅडल प्रस्तुत किया है, क्या बच्चों की सामूहिक मौत की घटना उस विकास के माॅडल का हिस्सा है? क्या गुजरात में चिकित्सा व्यवस्था दूसरे तमाम राज्यों से बेहतर है? यदि उत्तर सकारात्मक है तो ऐसी लापरवाही का होना गंभीर मामला है। राज्य सरकार को यह देखना चाहिए कि आखिर किस स्तर पर व्यवस्था में चूक हुई है। सिर्फ कारण गिना देना बहानेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं है। इन घटनाओं पर राजनीतिक बयानबाजी भी नहीं होनी चाहिए, आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी नहीं होना चाहिए। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण त्रासद घटनाओं की पुनरावर्ती न हो, बस इसकी ठोस व्यवस्था जरूरी है।
हालांकि मामले में तत्परता बरती है और जांच के आदेश दिए हैं। ग्यारह बच्चों की मौत हुई, जिनमें नौ मामलों की जांच के आदेश दिए गए हैं। अस्पताल का कहना है कि मरीज बच्चों को अस्पताल में भर्ती तब कराया गया था जब उनकी हालत ज्यादा खराब थी, जब निजी अस्पतालों को लगता है कि अब वे मरीजों का इलाज नहीं कर पाएंगे तो उन्हें वे सरकारी अस्पताल भेज देते हैं। अस्पताल के अधिकारियों ने यह भी कहा कि बच्चे देहात क्षेत्र से लाए गए थे, क्योंकि दिवाली की वजह से ग्रामीण क्षेत्र के चिकित्साधिकारी छुट्टी पर थे। इसलिए गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुंचाने में देरी हुई। लेकिन यह सब कोई मान्य बहाना नहीं है। कारण कुछ भी रहे हों, नवजात शिशुओं की मौत काफी दुखद है, चिकित्सा व्यवस्था पर एक दाग है। वहीं गर्भवती महिलाओं के कुपोषित होने के कारण गुजरात में अब भी जन्म के दौरान शिशुओं का अत्यधिक कम वजन होना चुनौती बना हुआ है। गर्भवती माताओं के लिए सरकार कई योजनाएं चला रही है। गर्भकाल में भी उनकी निगरानी की जाती है। अगर गुजरात जैसे राज्य में भी गर्भवती माताओं को पोषण ठीक से नहीं मिल रहा है तो फिर ‘गुजरात मॉडल’ का यह कौन-सा रूप है!
गौरखपुर मैडिकल कालेज में बच्चों की मौत पर काफी हंगामा हुआ था। वहां बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई। कहीं डाक्टरों की कमी, तो कहीं दवाइयों की उपलब्धता न होना, कहीं पर्याप्त मेडिकल संसाधन न होना इस तरह की दर्दनाक मौतों के कारण बनते हैं। लेकिन प्रशासन बच्चों की मौत के जो कारण बता रहा वे केवल लीपापोती है। अहमदाबाद में गौरखपुर जैसा कांड क्यों हुआ? इतने कम अंतराल के बाद इस तरह की घटना होना अनेक सवाल खड़े करती हैं। सवाल व्यवस्था में सुधार का है। सवाल पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का है। सवाल बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने का है, सवाल डाक्टरों एवं अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का है। इन सब दृष्टियों से स्वास्थ्य तंत्र में सुधार के बारे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। इस संबंध में कई और पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा।
इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने किन्हें आन्दोलित किया है, यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है। लेकिन इतना तय है बच्चों की मौत के बहाने ही सही हमें चिकित्सा व्यवस्था पर गंभीर चिन्तन करने की जरूरत है। क्योंकि एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर राज्य सरकारें स्वास्थ्य-ढांचे में सुधार के लिए कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिख रहीं। यद्यपि कई शहरों में एम्स जैसे अस्पताल बन रहे हैं लेकिन इस बात से सभी परिचित हैं कि दिल्ली के एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों के आप्रेशन के लिए दो-तीन साल की लम्बी प्रतिक्षा करनी पडती है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि पिछले दो दशक के भीतर स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति सरकारी तंत्र ने देखना उचित नहीं समझा। भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च लगभग 1.3 फीसद है, जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि हमारी सरकारें लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं और स्वास्थ्य के मुद्दे को संज्ञान में ले रही हैं।
बीते लोकसभा चुनावों में और अभी गुजरात विधानसभा चुनाव में गुजरात की समृद्धि की गाथाएं सुनाई जा रही हैं। यह कैसी तरक्की है? यह कैसा विकास है? यह कैसी गौरव गाथाएं हैं? जहां ऐसे बच्चे पैदा हो रहे हैं जिनका वजन बहुत कम है। जहां आज भी आदिवासी क्षेत्रों में बीमार व्यक्ति को लाने-लेजाने की सुविधा नहीं है, चार व्यक्ति खाट (पलंग) पर मरीज को ढ़ोकर ले जाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि गुजरात का ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्र अब भी कहीं ज्यादा उपेक्षित है और उसकी भी हालत शायद ओडिशा, छत्तीसगढ़ या झारखंड के ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों जैसी ही है। वैसे भी नवजात बच्चों की मृत्यु के मामले में भारत की स्थिति बहुत चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में बाल मृत्यु-दर की स्थिति भयावह है। 2015 में 2.5 करोड़ बच्चों ने जन्म लिया था, जिनमें से बारह लाख बच्चे पांच साल की आयु पूरी होने से पहले ही मर गए। गरीबी उन्मूलन और महिलाओं के उन्नयन की तमाम योजनाएं होने के बावजूद यह स्थिति परेशान करने वाली है। यह भी देखा जाता है कि योजनाओं में भ्रष्टाचार भी एक बड़ी समस्या है। जब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं होगी तब तक स्थिति सुधरने वाली नहीं है। चिकित्सा ऐसी सुविधा है, जो हर किसी को मिलनी चाहिए। विंडबना यह है कि शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में हमारी सरकारों ने जितनी जरूरत थी, उतनी चिंता नहीं की। विडम्बनापूर्ण तो यह भी है कि इन दोनों बुनियादी क्षेत्रों को निजी क्षेत्रों के हवाले कर सरकार निश्चिंतता की सांसें ले रही है, जबकि निजी क्षेत्र के लिये यह व्यवसाय है, मोटा धन कमाने का जरिया है। भला वे कैसे गरीब एवं पिछडे लोगों को लाभ पहुंचा सकती है? दोनों क्षेत्रों में निजीकरण बढ़ना सरकारों की असफलता को दर्शाता है।
पर राष्ट्र केवल निजीकरण से ही नहीं जी सकता। उसका सार्वजनिक पक्ष भी सशक्त होना चाहिए। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के नागरिकों के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय चरित्र नहीं बन पाया। राष्ट्रीय चारित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा है। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर्तव्य को गौण कर दिया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है और इसी विकृति के कारण न केवल स्वास्थ्य तंत्र लडखड़ा गया है बल्कि मासूम बच्चे मौत के शिकार हो रहे हैं।
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