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पाठक योगदान|लैंगिक असमानता को संवेदनहीनता जिम्मेदार

लैंगिक असमानता पर शासन.प्रशासन और लचर कानूनी व्यवस्था तथा सामाजिक संवेदनहीनता भारी पड़ती दिख रही है। लैंगिक असमानता समाज की सबसे मारक समस्याओं में से एक है। इसकी मार सबसे ज्यादा लड़कियों.महिलाओं पर पड़ती है। बाद में इसका खामियाजा बाद में पूरे समाज को भुगतना पड़ता है

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पाठक योगदान|लैंगिक असमानता को संवेदनहीनता जिम्मेदार लैंगिक असमानता पर शासन.प्रशासन और लचर कानूनी व्यवस्था तथा सामाजिक संवेदनहीनता भारी पड़ती दिख रही है। लैंगिक असमानता समाज की सबसे मारक समस्याओं में से एक है। इसकी मार सबसे ज्यादा लड़कियों.महिलाओं पर पड़ती है। बाद में इसका खामियाजा बाद में पूरे समाज को भुगतना पड़ता है।

पुरुष समाज में लड़कियों की भेदभावपूर्ण स्थिति बेहद भयावह है। बेशक स्थितियां बदल रही हैंए लेकिन कन्या भ्रूण हत्या आज तक बंद नहीं हुई हैं। हम चर्चा कर रहे हैं कन्या भ्रूण हत्या की। तमाम शोर शराबा मचते रहने के बावजूद यह असामाजिक बुराई थमने का नाम नहीं ले रही है।  इसके पीछे कुछ लोग तर्क देते हैं कि हम ज्यादातर अपनी पसंद का काम इसलिए नहीं कर पाते या करते हैं, क्योंकि हम चाहे अनचाहे में समाज की आ रही रूढ़ि सोच से खुद को अलग नहीं कर पाते।  हम उनकी सोच की खुशी को हर हाल में बरकरार रखना चाहते हैं।

नरक का भय, स्वर्ग की चाहत कि हम जब मरेंगे, तो बेटे के हाथ से मुखबाती नहीं मिली, तब नरक जाना होगा।  बेटी पराया धन होती, पराये का एक पैसा कम से कम मृत्यु के बाद न लगे।  इससे पाप लगेगा।  पहले के बनिस्बत आज पढ़े लिखों की संख्या अधिक होने के बावजूद वे समाज के रूढ़ि रिवाज से खुद को जोड़े रखे हुए हैं।  यह बुराई किसी एक जाति व समुदाय में नहीं बल्कि हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग में है और यह घिनौनी सोच प्रतिफ़लित है।  आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज्यादा हालात हरियाणा में खराब हैं।  हालांकि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या पूरी तरह से बंद है।  इस कानून का कड़ाई से पालन भी होता है लेकिन कन्याओं को गर्भ में मारने के लिए यूपी का सीमावर्ती इलाका यमराज का काम कर रहा है।

जानकारों का कहना है कि पिछले दिनों में गुड़गांव में कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए बनाई गई क्षेत्रीय फिल्म “8वां वचन” लोगों पर छाप छोड़ने में सफल रही।  एक माह के दौरान 19 शिक्षण संस्थानों में 16000 से अधिक युवाओं ने इस फिल्म को देखा।  जिला प्रशासन एवं रेडक्रास सोसायटी द्वारा विप्र फाउंडेशन के प्रयास से बनाई इस फिल्म को युवाओं के साथ साथ गांव के लोगों ने भी देखा।  इस फिल्म की काफी तारीफ हुई पर परिणाम वही ढाक के तीन पात।  क्षेत्रीय भाषा में बनी उक्त फिल्म एक ओर जहां कन्या भ्रूण हत्या करने वालों पर प्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष करती है, वहीं दूसरी ओर बेटियों को पढ़ाने के लिए भी यह फिल्म आमजन के मानस पटल पर छाप छोड़ती है।

इतना सब होने के बावजूद हालात में बदलाव न आना यह सिद्ध करता है कि समाज के लोग अपनी बुराई छोड़ने को तैयार नहीं हैं चाहें कुछ भी हो जाए। यदि एसा नहीं होता तो कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लग जाती। कुछ लोगों का कहना है कि हरियाणा में तो पूरी तरह से कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंध है। वहां कड़ाई से पीएनडीटी एक्ट का पालन भी हो रहा हैए लेकिन सीमावर्ती यूपी के जिले भ्रूण में कन्याओं की हत्या करने वालों ‘यमराज’ का काम कर रहे हैं।  हरियाणा से सटे यूपी के जिले बागपत, शामली, सहारनपुर व मेरठ, मुजफ्फरनगर में हरियाणा से आकर लोगों द्वारा धड़ल्ले से भ्रूण की जांच और कन्या भ्रूण हत्या कराई जा रही है।  जिसका खुलासा हरियाणा राज्य में जांचोपरांत हो रही है।  आरोपी बताते हैं कि उन्होंने यूपी के जिलों में जाकर कन्या भ्रूण की हत्या कराई है। तो देखा आपने कि किस तरह से हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं।  कन्याओं के प्रति दया-मोह का भाव कहां चला गया है।

सबको पता है कि भगवान महावीर ने कहा है जिस हिंसा के बिना हमारा जीवन चल सकता है वह हिंसा पाप है, अपराध है।  हमें इसे प्रश्रय नहीं देना चाहिए।  प्रकृति की ओर से पर्यावरणीय अन्याय चलता है जिसके तहत एक बड़ा जीव, छोटे जीव को खा जाता है।  किन्तु जब एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य का अकारण वध करने लगे तो ऐसे मनुष्य को दानवी प्रवृति का कहा जाता है।

समाज में नित अपराध बढ़ता चला जा रहा है, इनमें जघन्य अपराध है, कन्या भ्रूण हत्या।  इसके बहुत कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण तो यह है कि बेटा, श्मशान तक साथ चलेगा, मुखबाती देगा।  तब शास्त्रों के अनुसार, मुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी, अन्यथा मेरी आत्मा स्वर्ग न जाकर इसी मृत्युलोक में ही मृत्युपरांत भटकती रह जायेगी।  मेरे नाम को आगे बेटी कोख से जन्मी संतान नहीं ले जा सकती।  इसे तो बेटे का बेटा ही ले जा सकता है, अर्थात मरणोपरांत भी हमें जिंदा कोई रख सकता है, तो वह बेटा ही रखेगा।  बेटी का क्या, भूखा रहकर, रात जागकर पढ़ाओ लिखाओ, बड़ा करो और जब बारी आती सुख देने की, तब वह दूसरे के घर चली जाती है।  इतना ही नहीं, जाते जाते जीवन भर की जमा पूँजी भी लेती चली जाती है।

इसलिए यहां तो हमारा तप और तपस्या व्यर्थ ही चली जाती है। ऐसे में बेटी को पालने का झंझट क्यों उठायें।  क्यों न हम इसे दुनिया में आने से ही रोक दें।  इसके बावजूद अगर आ भी जाये तो छोटे पेड़ को उखाड़ने में क्या लगता है – यही पेड़ जब बड़ा हो जायगा, फ़िर उसे उखाड़ना आसान नहीं होगा।  इस सोच को मंजिल तक पहुँचाने में हमारा आज का विज्ञान सहयोगी बना हुआ है।  परिणामस्वरूप लोग शिशु का लिंग परीक्षण कर बेटी से छुटकारा पाने के लिए भ्रूण हत्या कर रहे हैं।  भगवान बुद्ध, महात्मा गाँधी जैसे नायकों के अहिंसा प्रधान देश में हिंसा हो रही है।  हालांकि ऐसा न करने के लिए कड़े कानून भी बनाए गए हैं, फिर भी कन्या भ्रूण की हत्या करने वालों पर इस कानून का कोई असर नहीं है।

बताते हैं कि भारत में करीब दो दशक पहले भ्रूण हत्या की शुरूआत हो गई।  गुरुनानक देव ने पाँच सदियों पहले ही अपने शब्द की शक्ति से लोगों को औरत की हस्ती के बारे में जागरूक कर दिया था।  नारी क्या है, इसे कमजोर मत समझोए इसी पर दुनिया टिकी है, नारी ही प्रकृति है।  लेकिन पुरुष प्रधान का जुनून और हमारा समाज बेटी को बोझ के सिवा और कुछ नहीं समझता।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कन्या भ्रूण हत्या को भारी भरकम दहेज से भी जोड़कर देखना होता है।  बेटी के जन्म लेने के साथ ही माँ बाप को दहेज की चिंता सताने लगती है।  कारण आजकल के जमाने में बेटी के लिए घर.वर खोजने से पहले, पैसे पास में कितने हैं, उसके आधार पर वर ढूँढ़ा जाता है, क्योंकि वर यहाँ बिकता है।  उसकी बोली लगाई जाती है।  कभी कभी तो दहेज के पैसे बेटी के पिता अपना घर बार गिरवी रखकर महाजन से सूद पर उठाकर लेते हैं।  इन पैसों को न लौटा पाने की सूरत में परिवार सहित आत्महत्या करने पर मजबूर होते हैं।  दहेज की परम्परा, अनपढ़ गंवार तक, या गरीब तबके तक सीमित नहीं है।  यह तो बड़े बड़े अमीरों में भी है।  फ़र्क बस इतना रहता है, गरीब का दहेज अमीरों के अंगोछे के दाम के बराबर होता है।  खैर, इस तरह बढ़ती भ्रूण हत्या के लिए केवल पुरुषों को ही दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा।  आजकल तो पढ़ी लिखी महिलाएँ स्वयं भी क्लिनिक में जाकर लिंग टेस्ट करवाती हैं।  अगर पहले बेटी है और दूसरी आने वाली संतान भी कन्या है, तब खुद ही डाक्टर से कहती है, हमें इसे ख़त्म कराना है।  फ़िर डाक्टर को भारी भरकम पैसे का लोभ देकर कन्या भ्रूण हत्या करवाती हैं।

बहरहाल, कह सकते हैं कि सैंकड़ों किस्म की सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वावसों की दुनिया शहर, कस्बों से लेकर गांवों तक महामारी की तरह फैली हुई हैं।  दुर्भाग्य से इन सबका शिकार अंततः महिलाएं होती हैं।  निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं।

जातिवादी घृणा की वजह से महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं होती हैं।  जाति और परंपरा के नाम पर विधवाओं का जीवन नरक बना दिया जाता है।  शराब और अफीम का नशा औरतों को हिंसा का शिकार बनाता है। किसी प्रकार के पारिवारिक संपत्ति विवाद में महिला का हिस्सा पुरुष हड़प लेते हैं।  दहेज प्रताड़ना के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं।  चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर साल हजारों गर्भवती स्त्रियों को जान से हाथ धोना पड़ता है।  कन्या भ्रूण हत्या और कई जातियों में जन्म के साथ ही कन्या को मार देने की परंपरा से मरने वाली बालिकाओं की तो गिनती ही नहीं है।  इस प्रकार की असामाजिक कृत्यों पर गंभीर चोट मारने की दरकार है ताकि जागरूकता बढ़े।  लोग बेटियों की अहमियत समझें।

Contributed by:

पाठक योगदान|लैंगिक असमानता को संवेदनहीनता जिम्मेदार

Asha Tripathi, Hardwar, Uttrakhand

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