विद्या भवन द्वारा प्रकाशित ‘21वीं सदी में भारत के सरोकार’ पुस्तक का विमोचन
"भारत का संविधान आशाओं भरा है। इसके आदर्शों को पूरा करने के लिए नागरिकों को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी।" - यह विचार राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर के जस्टिस गोविन्द नारायण माथुर ने आज विद्या भवन सोसायटी की ओर से हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रकाशित पुस्तक ‘21वीं सदी में भारत के सरोकार’ के विमोचन समारोह में व्यक्त किये। पुस्तक का सम्पादन डॉ. वेददान सुधीर व डॉ. एच.के. दीवान ने किया है।
“भारत का संविधान आशाओं भरा है। इसके आदर्शों को पूरा करने के लिए नागरिकों को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी।” – यह विचार राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर के जस्टिस गोविन्द नारायण माथुर ने आज विद्या भवन सोसायटी की ओर से हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रकाशित पुस्तक ‘21वीं सदी में भारत के सरोकार’ के विमोचन समारोह में व्यक्त किये। पुस्तक का सम्पादन डॉ. वेददान सुधीर व डॉ. एच.के. दीवान ने किया है।
पुस्तक को संविधान निर्मात्री सभा को समर्पित करने का उल्लेख करते हुए जस्टिस गोविन्द नारायण ने कहा कि वे संविधान के 5 अंग मानते हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अतिरिक्त मीडिया और नागरिक स्वयं हैं। यह विचारणीय है कि हम नागरिकों ने भारत के संविधान को अंगीकृत किया है, किन्तु क्या हम अपनी ज़िम्मेदारी में खरे उतरे हैं?
जस्टिस गोविन्द नारायण ने आगाह किया कि न्यायपालिका के प्रति आशा के साथ आशंका भी रखें। न्यायपालिका, शासन का क्राँतिकारी स्वरूप नहीं है बल्कि एक विध्वंसक स्वरूप है। पाकिस्तान में आज तक लोकतन्त्र नहीं होने का सबसे बड़ा कारण न्यायपालिका है।
उन्होंने यह भी आशंका जताई कि लोक अदालतों को या वैकल्पिक विवाद निपटान को तरजीह दी गई तो न्यायपालिका का क्षय होगा। उन्होंने न्याय को तय करने की बजाए अदालत से बाहर मध्यस्थता को दरअसल ‘ले-दे कर होने वाली कार्यवाही’ बताया। इस प्रक्रिया में यदि व्यक्ति के अधिकारों को कम कर दिया जाएगा तो यह ख़तरनाक हो सकता है।
जस्टिस गोविन्द नारायण ने कहा कि संविधान की मंशा है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम सिर्फ न्याय करना है। किन्तु ऐसे एक्ट बन गए जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिपतियों का होना विधिक रूप से ज़रूरी है। जजों की नियुक्ती का कार्यपालिकीय काम संविधान में दिया गया, लेकिन अब सर्वोच्च या उच्च न्यायालय का कॉलिजीयम नियुक्ति करता है। यह अन्ततः सर्वोच्च न्यायालय को सुपरविज़न की शक्ति देता है और हमारे गणराज्यीय सिद्धान्त को चोट पहुँचाता है।
भारत का संविधान दृढ़ व लचीला है; संविधान को वहीं तक लचक देनी होगी जहाँ तक यह प्रस्तावना में दिए आदर्शों को प्राप्त करने में देश की जनता का मददगार हो। लेकिन उनपर कहीं भी चोट पहुँचने का अर्थ होगा कि हम कहीं-न-कहीं संविधान को असफल करने का प्रयास कर रहे हैं। इसे बचाने के लिए कार्यपालिका या न्यायपालिका नहीं आएगी और न ही मीडिया से आशा है। इस से बचने की सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी नागरिकों की है।
विद्या भवन सोसायटी के अध्यक्ष रियाज़ तहसीन ने कहा कि हमें तय करना होगा कि अन्य महाशक्तियों की तरह नई सदी में अपने देश को एक महाशक्ति बनाना चाहते हैं, जिससे अन्य देश नफरत करते हों या एक शान्तिप्रिय देश बनाना चाहते हैं।
सम्पादक डॉ. वेददान सुधीर ने पुस्तक प्रकाशन के सन्दर्भ का ज़िक्र किया। सम्पादक डॉ. एच.के. दीवान ने बताया कि विद्या भवन ने हिन्दी में स्तरीय प्रकाशन किए हैं, जिसकी कड़ी में यह पुस्तक शामिल है। प्रो. नरेश भार्गव ने पुस्तक की समीक्षा पेश करते हुए इसकी अगली कड़ी के प्रकाशन की आवश्यकता जताई।
इससे पूर्व, जस्टिस गोविन्द नारायण, विद्या भवन के अध्यक्ष रियाज़ तहसीन, पुस्तक के सम्पादक द्वय तथा सोसायटी की कार्यकारिणी के सदस्य अरविन्द सिंघल ने पुस्तक का विमोचन किया। समारोह का संचालन डॉ. अरविन्द आशिया ने किया और विद्या भवन के व्यवस्था सचिव एस.पी. गौड़ ने आभार व्यक्त किया।
To join us on Facebook Click Here and Subscribe to UdaipurTimes Broadcast channels on GoogleNews | Telegram | Signal