आत्मज्ञान-आत्मदर्शन-आत्मरमणता ही मोक्ष या मुक्ति
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान में धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि शास्त्रों के ज्ञान, जीवादि नवतत्वों के श्रद्धान और पंचमदाव्रत रूप चारित्र से तो पुण्य बंध करके सद्गति (देवगति) के सुख मिलेंगे।
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान में धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि शास्त्रों के ज्ञान, जीवादि नवतत्वों के श्रद्धान और पंचमदाव्रत रूप चारित्र से तो पुण्य बंध करके सद्गति (देवगति) के सुख मिलेंगे।
इनसे उपर उठकर आत्मा को आत्मा का ज्ञान, आत्मा को आत्मा का दर्शन और स्वरूपरमणता होने से मोक्ष या मुक्ति होती है ऐसी उत्कृष्ठतम साधना मात्र मनुष्य भव में ही संभव है।
पूर्व के भव में प्रकृति की भद्रिकता (ऋजुता, कोमलता, लघुता, सरलता) थी। भूख-प्यास-गर्मी-सर्दी-मार जैसे कष्ट पाते भी सहनशीलता (संहिष्णुता) रही। दूसरे जीवों पर दया, करूण, सहृदयता, अंहिसा रही। अहंकार और ईर्ष्यारहित रहे। उससे यह उत्कृष्टतम भव मिला। आश्चर्य है कि इसमें आकर कुटिलता, असहनशीलता, अथ अनेक जीवों की हिंसा-विराधना और अहंकार-ईर्ष्या इत्यादि पाप-प्रवृत्ति में संलग्न हो गए। दुर्गति में जाने के कारणों को रोको।
पाप-भीरू, भव-भीरू बनो। छत प्रपंच, कपट रूप, माया चारी, कर चोरी, ठगी, गूढमाया में प्रवृत्ति से लिंर्यचगति के भयंकर दुख भोगने पडते है। बचों पांचों इन्द्रियों की पूर्ति हेतु जो पंचेन्द्रिय जीवों की घात-उपघात करते करवाते हो या कभी, कुछ मद्य मांस का सेवन हो तो नरक में जा भयंकर दुख मिलेंगे। वैसे ही यदि लाखों-करोड़ो की कमाई हेतु भारी आरंट-समारंभ में लगे हो या करोड़ो-अरबों की चल अचल सम्पदा रूप महापरिग्रह में ग्रस्त हो तो सोचो-रूको-घटाओं-मिटाओं। ये नरक गति में ले जाने वाले है। गतियों में ले जाने वाले शुभ या अशुभ भावों में मन, वचन, काया की प्रवृत्ति के स्थान पर आत्मज्ञान, दर्शन, रमणता, रूप, मुक्ति मार्ग, पकड़ों। प्रमाद छोडो, आयुण्य का कोई भरोसा नहीं, शीघ्र चेतों।
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