कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें, सिलसिले बातों के कुछ ऐसे चलें
“कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें, सिलसिले बातों के कुछ ऐसे चलें,गुज़रे वक़्त हमारी बातों की धूप-छाँव में, फिर सब अपने अपने घर को चलें” सब कुछ तो नहीं, पर इन्हीं शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कहना है मुझे ! गौर फरमाइएगा.... ज़िन्दगी की भागदौड़ में बहुत कुछ छूट जाता है, वक़्त हाथ से निकल जाता है, और पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता। कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जिन्हें बटोरा नहीं जा सकता, या तो सहेज लो या फिसलते हुए देखते रहो ‘मेरे चले जाने के बाद इस समंदर की रेत भी तुमसे पूछा करेगी..कहाँ गया वो शख्स, जो तनहाइयो में आकर बस तेरा नाम लिखा करता था..’ इस बात में जो गहराई है उसे समझो, कुछ सपने संजोयें होंगे समंदर किनारे किसी जोड़े ने, शायद किसी मजबूरी के चलते साथ छूटा होगा, दर्द तो रेत को भी हुआ ना क्योंकि वो साक्षी रही किसी की मोहब्बत की। मोहब्बत भी मसरूफियत की बलि चढ़ गई। काश वो बीता वक़्त लौट आए, जिंदा तो हम अब भी हैं, मगर जिंदादिली कहीं खो गई है।
“कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें, सिलसिले बातों के कुछ ऐसे चलें,गुज़रे वक़्त हमारी बातों की धूप-छाँव में, फिर सब अपने अपने घर को चलें” सब कुछ तो नहीं, पर इन्हीं शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कहना है मुझे ! गौर फरमाइएगा….
एक वो ज़माना था और एक ये ज़माना है, उसमें भी इंसान थे, इसमें भी इंसान हैं। बस उस ज़माने में “इंसान” थे, अब आधे पत्थर हैं। कहने का तात्पर्य यह कि हम अब भावनाओं को छोड़ चुके हैं और मशीनी ज़िन्दगी जी रहे हैं। कारण बहुत सीधा सा है किन्तु उसकी चाहत हदें पार कर चुकी है। पैसा…पैसा तो हमेशा से ही ज़रूरत रहा है, क्योंकि कलयुग में बिना पैसे के कोई काम होता ही नहीं। हर इंसान पैसे को ही सर्वोपरि मानते हुए अपना जीवन बिता रहा है, ऐसा जीवन जो सही मायनों में जीया नहीं जा रहा, बल्कि ढोया जा रहा है।
लोग ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त हो गए हैं, एक दूसरे से मिलने का समय है ही नहीं। असल में लोगों को सोशल मीडिया ने ज़्यादा व्यस्त कर दिया है। जब भी फुर्सत के कुछ लम्हे मिलते हैं, लोग अक्सर फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर बिज़ी हो जाते हैं। अपनों से बात करने का भी समय नहीं निकालते। अब ऑन लाइन शॉपिंग भी होती है, तो बाजार से सामान लेने कोई नहीं जाता। अब सब्जी भाजी भी ऑन लाइन मिलने लगी है, यानि अब तो फुर्सत मिलेगी ही नहीं। घर बैठे सेहत बिगड़ेगी सो अलग। रास्ते चलते भी कोई दोस्त नज़र नहीं आते। दोस्त रहे ही कहाँ, कुछ समय पहले की ही तो बात है कि सब्जी भाजी लेने के बहाने दोस्त एक साथ घर से निकलते थे जिससे मिलना मिलाना , सुख दुःख बांटना और घर परिवार की जानकारियां लेने-देने का सिलसिला चल जाता था पर अब……
जब सोशल मीडिया नहीं था तो लोग एक दूसरे से टेलिफ़ोन पर बात कर लिया करते थे। जब से सोशल मीडिया की अलग अलग साइट्स शुरू हुईं हैं, लोगों की बातें “चैट” में बदल गईं हैं। यानि पहले यदि आप किसी से फोन पर बात करते थे तो आपको पता होता था कि आपके रिश्तेदार, दोस्त या किसी अन्य मिलने वाले व्यक्ति की सेहत दुरुस्त है कि नहीं क्योंकि आवाज़ सुनकर इस बात का अंदाजा लगाना बहुत ही आसान था। यदि कोई व्यक्ति बीमार होता था, तो उससे मिलने नहीं जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। इस बहाने उसके घर के बड़े बुजुर्गों के बताये हुए घरेलू नुस्खे भी आशीर्वाद के साथ मिलते थे। यानि सोने पर सुहागा, आशीर्वाद भी मिला, नुस्खा भी मिला, आपको सुकून भी मिला कि आपने अपने बीमार मित्र या रिश्तेदार के साथ कुछ समय बिताकर उसे सुकून पहुंचाया और इस बात की तो गारंटी हो ही गई कि आप अपने बुरे वक़्त में कभी अकेले नहीं होंगे। बुरे वक़्त में साथ देने वाले हमेशा से ही देवदूत माने जाते हैं।
किन्तु आज ऐसा नहीं है। आज इंसान मतलबी हो चला है। दोस्ती-रिश्तेदारी सभी जेब से तय होती है। अगर आप बीमार हैं तो आपको कोई देखने नहीं आता, या फिर किसी छुट्टी के दिन का बहाना करके जता दिया जाता है कि चिंता तो बहुत है, किन्तु समय बिलकुल नहीं। अपेक्षा की जाती है कि इस सच्चाई को हम समझें। फोन या चैट के ज़रिये दुनिया भर की दुआएं ज़रूर हम तक पहुँच जाती हैं। यानि यह तो तय है कि जब हाल-चाल स्मार्ट फोन के ज़रिये या सोशल मीडिया के ज़रिये पूछ लिए तो इसे मिलने के बराबर माना जाए। और तो और कुछ बीमार लोग इसी बात से खुश हो लेते हैं कि चलो खातिरदारी करने से बचे, क्योंकि आने वाला या तो सीधा दफ्तर से आपके पास आएगा या फिर किसी और काम को निपटाते हुए थका मांदा आएगा, तो आपको अपनी फिक्र छोड़ उसकी आवभगत तो करनी ही पड़ेगी। बेचारा सब कुछ छोड़कर आपके पास जो आया !!
कभी कभी अपना बचपन बहुत याद आता है। कंप्यूटर तो होते नहीं थे, अधिकतर खेल घर के बाहर खेले जाते थे, और अकेले खेलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, क्योंकि अकेले खेलने वाले खेल तो आजकल होते हैं… कंप्यूटर में। मुझे इस बात से बेहद प्रसन्नता होती है कि मेरा जन्म कंप्यूटर के युग में नहीं हुआ। मेरे ‘युग’ में ‘दोस्त’ असली हुआ करते थे, हाड़-मांस से बने जीते जागते इंसान। आज की तरह मशीनी या ‘वर्चुअल’ दोस्त नहीं। उस ‘युग’ में हम सभी इकठ्ठे होकर घर से बाहर खेलते थे, गिरते पड़ते थे, और सँभलते या दोस्तों द्वारा संभाले जाते थे। अब तो आंसू निकल पड़ते हैं, उन दोस्तों को याद करके क्योंकि उनमें से बहुत से दोस्त अब मशीनी युग को समर्पित हो चले हैं। आश्चर्य होता है यह देखकर कि वही पुराने दोस्त कितने बदल गए हैं क्या उन्हें बीते दिनों की खुशियाँ याद नहीं आती होंगी ? क्या उन्हें आज के ज़माने की ये बेड़ियाँ तोड़ने का दिल नहीं करता होगा ? फुर्सत के पलों में कोई तो ऐसा होगा जो बीती बातें याद करके मुस्कुराता होगा, हो सकता है आँखों में नमी भी आती हो।
आज के मशीनी युग का सेहत पर बहुत ज्यादा असर आ रहा है। इंसान कसरत करने या फिट रहने के लिए जिम जाता है। खाने में तरह-तरह के वसा रहित यानि फैट-फ्री चीज़ें खाता है। सोच कर देखें तो इतना बनावटी शरीर किस काम का। जिस दिन जिम छूटा, उसके कुछ ही दिनों में फिर से वज़न बढ़ना शुरू हो जाता है। पहले ऐसा नहीं होता था, पहले मनुष्य कार या स्कूटर का आदी नहीं था। (यह बातें मेरे ज़माने की हैं, इसलिए मैंने जो देखा और अनुभव किया उसी को आपने सामने रखने का विचार मेरे मन में आया) साइकिल से आना जाना होता था, तो सेहत के लिए वर्जिश का ज़रिया साइकिल से बेहतर हो ही नहीं सकता। आज भी तो लोग जिम में जाकर साइकिल चलाते हैं। आज लोग ट्रेडमिल पर चलते हैं, पहले लम्बी दूरी पैदल तय कर ली जाती थी। तो सेहत के लिए पहले के तरीके ज्यादा मुफीद होते थे क्योंकि उनके लिए खर्चा नहीं करना पड़ता था, अब तो हर चीज़ के लिए जेब ढीली करो नहीं तो मोटापा बढ़ता जाएगा।
हमने तो और भी पुराने ज़माने के किस्सों के द्वारा यह जाना कि पहले महिलाएं पनघट पर पानी भरने जाती थीं तो सर पर मटके का संतुलन बनाकर चलने की आदत उनके सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक संतुलन को बनाकर रखती थी। पनघट के तो और भी किस्से हैं। घरों में अक्सर महिलाएं घर के बुजुर्गों ख़ास तौर पर मर्दों से पर्दा करती थीं तो पनघट ही उनकी मन की बातों, कुंठाओं, इच्छाओं को दूसरी महिलाओं के संग ज़ाहिर करने और सुख-दुःख बांटने का ज़रिया हुआ करता था। अब आजकल तो ऐसा संभव नहीं, ना वो पनघट रहे ना वो महिलाएं, क्योंकि आजकल तो सभी कामकाजी हैं, और जो घर में रहती हैं वो सभी सोशल मीडिया के द्वारा या फोन के द्वारा गपशप करती हैं।
आजकल वास्तव में गपशप ही होती है, वो दुःख-दर्द बांटना तो होता ही नहीं। एक दूसरे की कोई सुनता कहाँ है, कुछ कहो तो सुनना पड़ता है कि हर घर की यही कहानी है। यानि सहानुभूति वाली बातें सिर्फ किताबों, कहानियों या फिल्मों और टीवी के परदे पर दिखाई देती हैं। लोगों को आजकल यदि पैसा कमाने के तरीके बताओ तो सब सुनने को तैयार रहते हैं किन्तु कोई और बात करना चाहो तो वक़्त की कमी का बहाना अब नया नहीं है। सभी इसके आदी हो चुके हैं।
“रिश्ते भी राजनीति से प्रभावित हो चले हैं, लाखों वादे करके बनाये जाते हैं और मुकाम हासिल होने के बाद सब कुछ भुला दिया जाता है…हर कोई मसरूफ़ हो चला है बिना काम के,रिश्ते रह गए बस नाम के ” किसी के पास भी रिश्ते निभाने का वक़्त नहीं। एक वो ज़माना था जब स्कूल की छुट्टियां होते ही ननिहाल जाना एक परंपरा की तरह निभाया जाता था, या अगर आपके पिता किसी ट्रांसफरेबल जॉब में होते थे, तो आप अपने दादा-दादी के पास जाया करते थे। सभी को पता होता था कि रिश्तेदार कितने हैं, कौन-कौन हैं और कहाँ रहते हैं किन्तु अब इनमें से कुछ-कुछ पता होता है या फिर इन बातों को तवज्जो नहीं दी जाती। रिश्तेदारों के चेहरे भी अब सिर्फ सोशल मीडिया पर ही दिखते हैं। यह मत समझिएगा कि मैं सोशल मीडिया के खिलाफ हूँ, नहीं कदापि नहीं, मुझे भी बहुत से रिश्तेदारों की जानकारी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के द्वारा ही मिली है। मेरा कहने का मतलब सिर्फ यही है कि अब ‘मुलाकातें’ नहीं होती, बातें नहीं होती क्योंकि सब कुछ टेक्नोलॉजी बता देती है। बहुत से रिश्तेदारों से बातें भी सिर्फ चैट के ज़रिये होती हैं, शायद हम सबकी मिलने जुलने की आदतें ही ख़त्म हो चुकी हैं।
प्यार मोहब्बत के सिलसिले भी इन्टरनेट से ही बढ़ और बिगड़ रहे हैं। चैट के माध्यम से मीठी मीठी बातें पहुंचाई जाती हैं, अगर स्माइली ना लगाया जाए तो बात का मतलब गलत भी निकाल लिया जाता है। सारे वादे चैट के द्वारा करके ‘उस पार’ बैठे इंसान का दिल जीतने का प्रयास जब सफल होता है तो शुरू होती है प्रेम कहानी। और इसी तरह चैट खिड़की पर ही टूटती भी है। जहाँ तक प्यार वाली बात है तो हम सभी को यही पता होता था कि किसी ना किसी प्रकार से प्यार में डूबे जोड़े पार्क में, पिक्चर हॉल में, कॉफ़ी हाउस में या पार्क में मिलते हैं और शुरू होती है मीठी नोंक-झोंक जिसे दोस्तों को चटकारे लेकर सुनाया जाता है।
दोस्तों की मदद से मिलने जुलने की दास्तां आज भी कुछ लोग अपने बच्चों को बता देते हैं जिनके प्यार की सफलता उनके बच्चों के लिए एक ‘हॉट टॉपिक’ होती है। मगर बाकी लोगों का क्या, सारी बातें या तो फोन पर या चैट में, यानि चेहरे की भावों को पढ़कर जहाँ आप सच और झूठ समझ सकते थे वो तो अब संभव ही नहीं। और इस पर भी गड़बड़ तब होती है जब मनचले लोग यह सब कुछ मौज मस्ती के लिए करते हैं और गलत सन्देश भेजने की वजह से रिश्ते खटाई में पड़ जाते हैं। अपनों के साथ गुज़ारे हुए वक़्त की कीमत सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं जिन्हें मजबूरी में अपनों से अलग रहना पड़ रहा है। आज के दौर में ‘मजबूरी’ लोगों के लिए ‘स्टेटस-सिंबल’ बन गई है। यानि अगर कोई इंसान मजबूर नहीं, उसके पास दूसरों के लिए वक़्त है तो उसकी कोई कीमत नहीं, उसकी ज़िन्दगी मकसद विहीन है, ऐसी मेरी सोच नहीं …ये उनकी सोच है जिनसे ‘प्रेरित’ होकर मैंने ये विचार प्रकट किये हैं।
कभी फुर्सत में बैठकर सोचें तो हमने अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ती में कितना समय गवांया है इसका आंकलन हमें झकझोर देगा। क्योंकि वो सारा वक़्त जो हम भौतिक सुख बटोरने में लगा रहे थे या उसके प्रयास में लगे थे, उस वक़्त का छोटा सा पल किसी अपने के साथ बिताते तो यादें संजोने के लिए बहुत कुछ मिलता। जब यादें ही नहीं होती, तो अकेलेपन का साथ देने के लिए कुछ नहीं होता, वस्तुएं सिर्फ कुछ पलों का आराम देती हैं, मगर जीवन भर संजोने के लिए एहसास नहीं देतीं।
ज़िन्दगी की भागदौड़ में बहुत कुछ छूट जाता है, वक़्त हाथ से निकल जाता है, और पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता। कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जिन्हें बटोरा नहीं जा सकता, या तो सहेज लो या फिसलते हुए देखते रहो ‘मेरे चले जाने के बाद इस समंदर की रेत भी तुमसे पूछा करेगी..कहाँ गया वो शख्स, जो तनहाइयो में आकर बस तेरा नाम लिखा करता था..’ इस बात में जो गहराई है उसे समझो, कुछ सपने संजोयें होंगे समंदर किनारे किसी जोड़े ने, शायद किसी मजबूरी के चलते साथ छूटा होगा, दर्द तो रेत को भी हुआ ना क्योंकि वो साक्षी रही किसी की मोहब्बत की। मोहब्बत भी मसरूफियत की बलि चढ़ गई। जिस देश में प्यार मोहब्बत की अनेकों कहानियाँ कही जाती हैं, उसी देश में आज किसी की आँखों में आंसू होते हैं अपनी अधूरी मोहब्बत की कहानी कहते हुए। हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, लैला-मजनूं के किस्से अब पुराने और विशवास के परे हो चले हैं क्योंकि आज के दौर की गतिविधियों में व्यस्त पीढ़ी को क्या समझ आएगा कि प्यार ‘टाइम-पास’ नहीं होता, प्यार दिल की गहराइयों में उतरा हुआ वो जज़्बा है जिसे निभाना पड़ता है, खिलौने की तरह खेला नहीं जाता।
काश वो बीता वक़्त लौट आए, जिंदा तो हम अब भी हैं, मगर जिंदादिली कहीं खो गई है।
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