जनजातियों के रीति- रिवाजों का सम्मान किया जाए – सिंह
जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव प्रीतम सिंह ने कहा कि जनजाति परिवारों में कई रीति रिवाज ऐसे हैं जो सभ्य समाज में भी देखने को नहीं मिलते, इन रीति रिवाजों को कुरीति के रूप में न लेकर परिस्थितियों के अनुरूप उनका सम्मान किया
जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव प्रीतम सिंह ने कहा कि जनजाति परिवारों में कई रीति रिवाज ऐसे हैं जो सभ्य समाज में भी देखने को नहीं मिलते, इन रीति रिवाजों को कुरीति के रूप में न लेकर परिस्थितियों के अनुरूप उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
सिंह उच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों की अनुपालना में बुधवार को माणिक्य लाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान में जनजाति समुदाय के विकास में बाधक सामाजिक रीति-रिवाज एवं सतत् विकास पर आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में मुख्य अतिथि पद से उद्बोधन दे रहे थे। उन्होंने कहा कि जनजाति परिवारों में बाल विवाह नहीं होते हैं एवं दहेज प्रथा नहीं के बराबर है।
इनमें महिलाओं को सम्मानजनक स्थान दिया जाता है। डायन प्रथा, मौताणा एवं वैर प्रथा पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि आज ये प्रथाएं आदिवासियों में न होकर सभ्य समाज एवं शहरों में देखने को मिल रही है। सिंह ने कहा कि राज्य में आदिवासी एवं गैर आदिवासियों में किसी प्रकार का टकराव नहीं है। उन्होंने यहां तक कहा कि इनके समाज में अपनाये जा रहे कई रीति रिवाज हम अंगीकार कर सकते हैं।
कार्यशाला में संभागीय आयुक्त डॉ. सुबोध अग्रवाल ने कहा कि आदिवासियों की रीति को कुरीति कहने से पहले उनकी परिस्थिति एवं स्थिति को अवश्य देखना होगा। उन्होंने कहा कि जनजाति परिवार मार्केट सिस्टम को समझ नहीं पाये हैं इसके बावजूद भी वे कई क्षेत्रों में हमसे आगे हैं।
उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि एक आईआईटी का टॉपर छात्र एवं एक जनजाति परिवार का छात्र को यदि आदिवासी क्षेत्र में पन्द्रह दिन के लिए यदि जंगल में छोड दिया जाता है तो वह आदिवासी बालक हर परिस्थितियों का मुकाबला आसानी से कर पाएगा जबकि आईआईटी का छात्र इसमें असफल रहेगा। संभागीय आयुक्त ने कहा कि हमें आदिवासियों की अच्छाइयों को ढूढकर समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना होगा।
कार्यशाला में शिक्षा शास्त्री एम.एस.द्विवेदी ने कहा कि सभी समाजों में रीति रिवाज बाधक नहीं हो सकते इन्हें परिस्थितियों को ध्यान में रखकर देखना होगा। उन्होंने कहा कि संकुचित स्वभाव के कारण आदिवासी आगे नहीं आ पाये। आवश्यकता इस बात की है कि हमें उनकी संस्कृति को बचाए रखते हुए इन्हें राष्ट्रीय विकास की मुख्य धारा से जोडना होगा।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों को शिक्षा, रोजगार सहित सभी क्षेत्रों में विकास के समान अवसर प्रदान करने की जरूरत है। उन्होंने समाज में व्याप्त डायन प्रथा, मौताणा एवं वैर प्रथा पर कहा कि इन कुरीतियों के दुष्प्रभावों की जानकारी अधिकाधिक आदिवासियों को दी जाए एवं प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी इसको सम्मिलित किया जाए।
प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए टीआरआई के निदेशक अशोक यादव ने कहा कि यह कार्यशाला उच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना एवं संस्थान के स्वर्ण जयन्ति वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित की जा रही है। विभिन्न सत्रों में आयोजित इस कार्यशाला में जनजाति क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाएं, जनजाति विकास विभाग के अधिकारी, शिक्षाविद्, समाजशास्त्री एवं जनजाति समुदाय के जन प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कार्यशाला में जनजाति समाज के विकास में बाधक रीति-रिवाजों एवं अंधविश्वासों के प्रति चेतना जागृत करने एवं कार्ययोजना तैयार की गई। इसके अलावा जनजाति समाज में शिक्षा व चेतना जागृत करने, कुरीतियों को दूर करने में स्वयंसेवी संस्थाओं एवं शासन की भूमिका पर विस्तार से विचार-विमर्श किया गया।
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