लालबत्ती के आतंक से मुक्ति की नई सुबह


लालबत्ती के आतंक से मुक्ति की नई सुबह

केंद्र सरकार ने आगे बढ़कर मोटर व्हीकल्स ऐक्ट के नियम 108 (1) और 108 (2) में बदलाव करके लाल बत्ती वाली गाड़ियों को ट्रैफिक नियमों से छूट देने की व्यवस्था ही खत्म कर दी। लेकिन मोदी से आगे की बात सोचनी होगी। देश में सही फैसलों की अनुगूंज होना शुभ है, लेकिन इनकी क्रियान्विति भी ज्यादा जरूरी है। वीआईपी कल्चर खत्म करने के नफा-नुकसान का गणित

 

लालबत्ती के आतंक से मुक्ति की नई सुबह

देश में वीवीआईपी कल्चर को खत्म करने के लिए नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने ऐतिहासिक निर्णय लिया है। इस फैसले के बाद शान समझी जाने वाली लालबत्ती वाहनों पर लगाने का अधिकार किसी के पास नहीं होगा। इस निर्णय से राजनीति की एक बड़ी विसंगति को न केवल दूर किया जा सकेगा, बल्कि ईमानदारी एवं प्रभावी तरीके से यह निर्णय लागू किया गया तो समाज में व्याप्त लालबत्ती संस्कृति के आतंक से भी जनता को राहत मिलेगी। क्योंकि न केवल कीमती कारों में बल्कि लालबत्ती लगी गाड़ियों में धौंस जमाते तथाकथित छुटभैये नेता जिस तरह से कहर बनकर जनता को दोयम दर्जा का मानते रहे हैं, उससे मुक्ति मिलेगी और इससे राजनीति में अहंकार, कदाचार एवं रौब-दाब की विडम्बनाओं एवं दुर्बलताओं से मुक्ति का रास्ता साफ होगा। इससे साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति को बल मिलेगा। नये भारत में इस तरह के अनुशासित, अहंकारमुक्त, स्वयं को सर्वोपरि मानने की मानसिकता से मुक्त जनप्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अंग्रेजों द्वारा अपनी अलग पहचान बनाये रखने की गरज से ऐसी व्यवस्था लागू की गई थी जिसका आंखें मूंदकर हम स्वतन्त्र भारत में पालन किये जा रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार लालबत्ती संस्कृति पर अंकुश लगाने की जरूरत बताई थी मगर राजनीतिक दल इसे दरकिनार किये जा रहे थे।

लाल बत्ती एवं वीआइपी संस्कृति ने जनतांत्रिक और समतावादी मूल्यों को ताक पर ही रख दिया था। हर व्यवस्था कुछ शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को विशिष्ट अधिकार हासिल होते हैं, इसी के अनुरूप उन्हें विशेष सुविधाएं भी मिली होती हैं, ऐसा होना कोई गलत भी नहीं है। लेकिन गलत तो तब होने लगा जब मंत्रियों और नेताओं का सुरक्षा संबंधी तामझाम बढ़ने लगा और लाल बत्ती लगी गाड़ियों का दायरा भी। बहुत सारे मामलों में सत्ता में होने का फायदा उठा कर नियमों में बदलाव करके गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने की छूट बढ़ाई गई। जाहिर है, यह सत्ता के दुरुपयोग का ही एक उदाहरण था। यह भी हुआ कि बहुत सारे वैसे लोग भी लाल बत्ती लगी गाड़ी लेकर घूमने लगे जो इसके लिए कतई अधिकृत नहीं थे। कई तो फर्जी तरीके से लालबत्ती लगाकर गैरकानूनी काम एवं प्रभाव जमाने लगे।

जिस अधिकारी या व्यक्ति को लालबत्ती की सुविधा मिली थी, उनके पारिवारिकजन एवं मित्र आदि इस रौब या वीआईपी होने का दुरुपयोग करने लगे। आम जनता से हटकर एक खास मनोवृत्ति और वीवीआइपी संस्कृति को प्रतिबिंबित करने का जरिया बन गई यह लालबत्ती। अपने रुतबे का प्रदर्शन और सत्ता के गलियारे में पहुंच होने का दिखावा- इस तरह सत्ता का अहं अनेक विडम्बनापूर्ण स्थितियां का कारण बनती रही। अपने को अत्यंत विशिष्ट और आम लोगों से ऊपर मानने का दंभ- एक ऐसा दंश या नासूर बन गया जो तानाशाही का रूप लेने लगा। जनता को अधिक-से-अधिक सुविधा एवं अधिकार देने की मूल बात कहीं पृष्ठभूमि में चली गयी और राजनेता कई बार अपने लिये अधिक सुविधाओं एवं अधिकारों से लैस होते गये। राजनीति की इस बड़ी विसंगति एवं गलतफहमी को दूर करने का रास्ता खुला है जो लोकतंत्र के लिये एक नयी सुबह है। क्योंकि राजनीति एवं राजनेताओं में लोगों के विश्वास को कायम करने के लिये इस तरह के कदम जरूरी है। सत्ता का रौब, स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान का गणित हर वीआईपी पर छाया हुआ है।

सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर निजी हितों पर ठहरता रहा है। यही कारण है राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की बात उठना ही बन्द हो गयी। जिस नैतिकता, सरलता, सादगी, प्रामाणिकता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही, सामाजिक व्यवस्था बनी रही, जीवन व्यवहार चलता रहा वे आज लुप्त हो गये हैं। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था आज हमने उसे तार-तारकर खूंटी पर टांग दिया था। मानों वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब इतिहास की चीज हो गई। लेकिन अब बदलाव आ रहा है तो संभावनाएं भी उजागर हो रही हैं। लेकिन इस सकारात्मक बदलाव की ओर बढ़ते हुए समाज की कुछ खास तबकों को भी स्वयं को बदलना होगा। राजनेताओं की भांति हमारे देश में पत्रकार, वकील आदि ऐसे वर्ग है जो स्वयं को वीआईपी से कब नहीं समझते। ऐसे लोग भी अपनी कारों पर भले ही लालबत्ती न रखते हो, लेकिन प्रेस एवं एडवोकेट बड़े-बड़े शब्दों में लिखवाते हैं और पुलिस हो या आम जनता दबाने या राक्ब गांठने की पूरी कोशिश करते हैं। इन लोगों के लिये भी कुछ नियम बनने चाहिए।

कई लोग सत्ता एवं सम्पन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही अफण्ड करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर और आतंक। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्दता एवं समता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन-भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिये जाते हैं शोषण, कदाचार और सामाजिक अन्याय के। अब यदि आजादी के बाद से चली आ रही लाल बत्ती एवं वीआईवी संस्कृति की इन विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने की ठानी है तो जनता को सुकून तो मिलेगा ही।

यह फैसला प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर लिया गया है जिन्होंने पिछले दिनों ही भारत यात्रा पर आयीं बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना वाजेद का दिल्ली हवाई अड्डे पर बिना किसी तामझाम के पहुंच कर स्वागत किया था। आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। लेकिन शीर्ष पर अब तक इनका अभाव छाया हुआ था, वहां मूल्य बन ही नहीं रहे थे, लेकिन अब शीर्ष पर मूल्य बन रहे हैं और उसी का यह सन्देश जनता के बीच गया है कि प्रधानमन्त्री की गाड़ी भी बिना लालबत्ती के दिल्ली की सड़कों पर यातायात के नियमों का पालन करते हुए निकल सकती है। अतः राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को फिर डर किस बात का हो सकता है? लेकिन असली मुद्दा राजनीति में सेवा, सादगी एवं समर्पण के लिये आने वाले लोगों का नहीं बल्कि ऐसे अति विशिष्ट बने व्यक्तियों का है जो राजनीति में आते ही प्रदर्शन, अहंकार एवं रौब गांठने के लिये है और ऐसे ही लोग जोड़-तोड़ करके लालबत्ती की गाडियां लेते थे और फिर समाज, प्रशासन व पुलिस में अपना अनुचित प्रभाव जमाते थे। ऐसे लोग तो सड़कों पर आतंक एवं अराजकता का माहौल तक बनाने से बाज नहीं आते थे। इसकी आड़ में असामाजिक तत्व भी ऐसे कारनामे कर जाते थे जिनसे कानून-व्यवस्था की रखवाले पुलिस तक को बाद में दांतों के नीचे अंगुली दबानी पड़ती थी। हूटर बजाते हुए लालबत्ती लगी गाडियां सारे नियम-कानून तोड़ कर आम जनता में दहशत फैलाने का काम करती थीं। जो लोग वास्तव में विशिष्ट व्यक्ति हैं उन्हें लाल बत्ती की जरूरत थी ही नहीं क्योंकि उनका रुतबा किसी प्रकार के दिखावे की मांग नहीं करता है।

जैसे ही प्रधानमंत्रीजी ने लालबत्ती संस्कृति पर अंकुश की बात कही, अनेक नेताओं ने अपने हाथों से अपनी कारों की लालबत्ती हटाते हुए फोटो खिचवाएं। इस तरह की कार्रवाई से कहा वे आम जनता को वीआईपी मानने की तैयारी में दिख रहे है, लालबत्ती हो, या अखबार में फोटो छपना, टीवी पर आना हो या स्वयं को किसी मसीहा की तरह दर्शाना हो- यह मानसिकता बदलना इतना आसान नहीं है। मन्दिरों में हो या अन्य जलसों में राजनेता सभी व्यवस्थाओं को ताक पर रखकर लम्बी-लम्बी लाइनों में लगी जनता को ढेंगा दिखाते हुए सबसे आगे पहुंच जाते हैं। क्या नेता हर मौके पर धीरज के साथ अपनी बारी आने का इंतजार कर सकेंगे? बहुत मुश्किल है राजनेताओं को सादगी, संयम, सरलता एवं अहं मुक्ति का पाठ पढ़ाना और उसे उनके जीवन में ढालना। हालत यह है कि जिस दिन लालबत्ती हटाने का फैसला टीवी की सुर्खियों में था, उसी दिन यह खबर भी चल रही थी कि बीजेपी के एक विधायक ने एक टोल बूथ पर खुद को तुरंत आगे न निकलने देने से नाराज होकर एक टोलकर्मी को थप्पड़ मार दिया। कोई टोलकर्मी कोे तो कोई एयरपोर्ट अधिकारी को थप्पड़ मारकर ही अपने आपको शंहशाह समझ रहा है, इन हालातों में कैसे लालबत्ती एवं वीआईपी की मानसिकता से इन राजनेताओं को मुक्ति दिलाई जा सकती है? यह शोचनीय है। अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है।

केंद्र सरकार ने आगे बढ़कर मोटर व्हीकल्स ऐक्ट के नियम 108 (1) और 108 (2) में बदलाव करके लाल बत्ती वाली गाड़ियों को ट्रैफिक नियमों से छूट देने की व्यवस्था ही खत्म कर दी। लेकिन मोदी से आगे की बात सोचनी होगी। देश में सही फैसलों की अनुगूंज होना शुभ है, लेकिन इनकी क्रियान्विति भी ज्यादा जरूरी है। वीआईपी कल्चर खत्म करने के नफा-नुकसान का गणित उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण यह है कि इससे आम लोगों के मन से खास लोगों का खौफ कुछ कम जरूर होगा। एक समतामूलक समाज की संरचना निर्मित करने की दिशा में हम आगे बढ़ेंगे।

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लालबत्ती के आतंक से मुक्ति की नई सुबह
ललित गर्ग
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