भीड़तंत्र का हत्यारा बन जाने का दर्द

भीड़तंत्र का हत्यारा बन जाने का दर्द

देश बदल रहा है, हम इसे देख भी रहे हैं। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं और भीड़ खुद फैसला करने लगी है। भीड़तंत्र का अपराध में शामिल होना, उसे जायज ठहराना या फिर खामोशी से देखकर आगे बढ़ जाना हिंसा को बढ़ावा देना है। यदि इस प्रवृत्ति को तुरन्त रोका नहीं गया तो यह देेश तबाह हो जाएगा। ऐसे हत्याकांड देश पर आत्मघाती हमला हैं। भारत का जनतंत्र आदमखोर भीड़तंत्र में परिवर्तित हो रहा है। इसे रोकना होगा और इसके लिए हम सभी को पहल करनी होगी। हिंसा ऐसी चिंनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है। इसके ल

 
भीड़तंत्र का हत्यारा बन जाने का दर्द

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के चंदगांव में सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे फर्जी मेसेज पर यकीन करके भीड़ द्वारा दो लोगों को पीट-पीट के हत्या कर दिये जाने का मामला सामने आया है। इससे पहले असम के कार्बी आंग्लोंग जिले में भीड़ ने बच्चा चोरी के संदेह में पेशे से साउंड इंजीनियर नीलोत्पल दास और गुवाहाटी के ही व्यवसायी अभिजीत की पीट-पीटकर हत्या कर दी। कुछ अर्से पहले दिल्ली में खुलेआम दो लड़कों को पेशाब करने से रोकने पर एक ई-रिक्शा चालक की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। कभी गौमांस खाने के तथाकथित आरोपी को मार डाला जाता है, कभी किसी की गायों को वधशाला ले जाने के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है, कभी छोटी-मोटी चोरी करने वाले को मारा जाता है तो कभी बच्चा चोरी के संदेह में लोगों की हत्याएं की जाती हैं। किसान आन्दोलन हो या गौरक्षा का मसला या आम जनजीवन की सामान्य-सी बातें-हिंसा एवं अशांति की ऐसी घटनाएं देशभर में लगातार हो रही हैं। महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसक देश में हिंसा का बढ़ना न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि गंभीर सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। भीड़ द्वारा लोगों को पकड़कर मार डालने की घटनाएं परेशान करने वाली हैं। सभ्य समाज में किसी की भी हत्या किया जाना असहनीय है लेकिन जिस तरह से भीड़तंत्र के द्वारा कानून को हाथ में लेकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालना अमानवीयता एवं क्रूरता की चरम पराकाष्ठा है।

भीड़तंत्र के द्वारा हत्या की बढ़ती घटनाओं का कारण अफवाहें हैं, सोशल मीडिया की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन वे पहले भी फैलती थीं। खासकर धर्म पर आधारित अफवाहों के फैलने में देर नहीं लगती थी। बिना मोबाइल के दिल्ली में गणेश की मूर्ति के दूध पीने की अफवाह सैकड़ों किलोमीटर दूर तक घंटों में पहुंच गई और हजारों-लाखों लीटर दूध बर्बाद हो गया। एक मुस्लिम के घर के पास एक जानवर का कंकाल मिला। किसी पशु विशेषज्ञ ने यह पुष्टि तक नहीं की कि वह गाय का कंकाल था। किसी जांच से यह भी साबित नहीं हुआ था कि वह अगर गाय ही थी तो उसकी हत्या उस मुसलमान ने ही की। लेकिन भीड़ ने उस मुसलमान का घर जला डाला। साथ ही उस बूढ़े मुसलमान की भी जान ले ली। दरअसल यह हत्यारी मानसिकता को जो प्रोत्साहन मिल रही है उसके पीछे एक घृणा, नफरत, संकीर्णता और असहिष्णुता आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का भी संकेत है। भीड़तंत्र का हिंसक, अराजक एवं आक्रामक होना अनुचित और आपराधिक कृत्य है।

भीड़ कभी भी आरोपी को पक्ष बताने का अवसर ही नहीं देती और भीड़ में सभी लोग अतार्किक तरीके से हिंसा करते हैं। कभी-कभी ऐसी हिंसक घटनाएं तथाकथित राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक लोगों के उकसाने पर कर दी जाती है। ऐसे कृत्य से कानून का उल्लंघन तो होता ही है भारत की अहिंसा एवं विश्वबंधुत्व की भावना भी ध्वस्त होती है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का हक कानून को है, न कि जनता उसको तय करेगी। अपराधी को स्वयं सजा देना कानूनी तौर पर तो गलत है ही, नैतिक तौर पर भी अनुचित है और ये घटनाएं समाज के अराजक होने का संकेत है। लेकिन यहां प्रश्न यह भी है कि व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर क्यों हो रहा है? सवाल यह भी है कि हमारे समाज में हिंसा की बढ़ रही घटनाओं को लेकर सजगता की इतनी कमी क्यों है?

एक सभ्य एवं विकसित समाज में अनावश्यक हिंसा का बढ़ना विडम्बनापूर्ण है। ऐसे क्या कारण है जो हिंसा एवं अशांति की जमीं तैयार कर रहे हैं। देश में भीड़तंत्र हिंसक क्यों हो रहा है ? मनुष्य-मनुष्य के बीच संघर्ष, द्वेश एवं नफरत क्यों छिड़ गयी है? कोई किसी को क्यों नहीं सह पा रहा है ? प्रतिक्षण मौत क्यों मंडराती दिखाई देती है? ये ऐसे सवाल है जो नये बनते भारत के भाल पर काले धब्बे हैं। ये सवाल जिन्दगी की सारी दिशाओं से उठ रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आखिर इंसान गढ़ने में कहां चूक हो रही है? यह किसी भारी चूक का ही परिणाम है कि झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते क्रुद्ध भीड़ ने 6 लोगों को पीट-पीटकर मार डाला था। यह कहां का न्याय है? यह कहां की सभ्यता है? हत्या का शिकार कोई एक समाज या धर्म का व्यक्ति नहीं होता बल्कि सभी समुदायों के लोग इसका शिकार हो रहे हैं। तेजी से बढ़ता हिंसक दौर किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इन हिंसक होती स्थितियों को रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। यदि समाज में पनप रही इस हिंसा को और अधिक समय मिला तो हम हिंसक वारदातें सुनने और निर्दोष लोगों की लाशें गिनने के इतने आदी हो जायेंगे कि वहां से लौटना मुश्किल बन जायेगा। इस पनपती हिंसक मानसिकता के समाधान के लिये ठंडा खून और ठंडा विचार नहीं, क्रांतिकारी बदलाव के आग की तपन चाहिए।

आप कितने असुरक्षित हैं हम? निर्दोष मारा जा रहा है और अपराधी साफ-साफ बच निकलता है। राजनीति की छांव तले होने वाली भीड़तंत्र की वारदातें हिंसक रक्तक्रांति का कलंक देश के माथे पर लगा रही हैं चाहे वह एंटी रोमियो स्क्वायड के नाम पर हो या गौरक्षा के नाम पर। कहते हैं भीड़ पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। वह आजाद है, उसे चाहे जब भड़काकर हिंसक वारदात खड़ी की जा सकती है। उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है जिसके कारण वह कहीं भी कानून को धत्ता बताते हुए मनमानी करती है। भीड़ इकट्ठी होती है, किसी को भी मार डालती है। जिस तरह से भीड़तंत्र का सिलसिला शुरू हुआ उससे तो लगता है कि एक दिन हम सब इसकी जद में होंगे।

हिंसा एवं अराजकता की बढ़ती इन घटनाओं के लिये केकड़ावृत्ति की मानसिकता जिम्मेदार है। आज राजनेता अपने स्वार्थों की चादर ताने खड़े हैं अपने आपको तेज धूप से बचाने के लिये या सत्ता के करीब पहुंचने के लिये। सबके सामने एक ही अहम सवाल आ खड़ा है कि ‘जो हम नहीं कर सकते वो तुम कैसे करोगे?’ लगता है इसी स्वार्थी सोच ने, आग्रही पकड़ ने, राजनीतिक स्वार्थ की मनोवृत्ति ने देश को हिंसा की आग में झोंक रखा है।

राजनीतिक स्वार्थों के लिये हिंसा को हथियार बनाया जा रहा है। किसी न किसी विचारधारा से जोड़कर अपनी सेनाएं बना लेने की परम्परा विकसित की जा रही है, कोई रणवीर सेना बना रहा है तो कोई श्रीराम सेना तो कोई रावण सेना, कोई अपना ही रक्षक दल बना रहा तो कोई अल्पसंख्यकों की अपनी सेना गठित कर रहा है। बहुसंख्यक अपनी सेना बना रहा है तो हर गली-मौहल्ले में भी ऐसे ही संगठन हिंसा करने के लिये खड़े किये जा रहे हैं। लोकतंत्र भेड़तंत्र में बदलता जा रहा है। इस लिहाज से सरकार को अधिक चुस्त होना पड़ेगा। कुछ कठोर व्यवस्थाओं को स्थापित करना होगा, अगर कानून की रक्षा करने वाले लोग ही अपराधियों से हारने लगेंगे तो फिर देश के सामान्य नागरिकों का क्या होगा?

देश बदल रहा है, हम इसे देख भी रहे हैं। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं और भीड़ खुद फैसला करने लगी है। भीड़तंत्र का अपराध में शामिल होना, उसे जायज ठहराना या फिर खामोशी से देखकर आगे बढ़ जाना हिंसा को बढ़ावा देना है। यदि इस प्रवृत्ति को तुरन्त रोका नहीं गया तो यह देेश तबाह हो जाएगा। ऐसे हत्याकांड देश पर आत्मघाती हमला हैं। भारत का जनतंत्र आदमखोर भीड़तंत्र में परिवर्तित हो रहा है। इसे रोकना होगा और इसके लिए हम सभी को पहल करनी होगी। हिंसा ऐसी चिंनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है। इसके लिये सत्ता के करीबी और सत्ता के विरोधी हजारों तर्क देंगे, हजारों बातें करेंगे लेकिन यह दिशा ठीक नहीं है। जब समाज में हिंसा को गलत प्रोत्साहन मिलेगा तो उसकी चिंनगारियों से कोई नहीं बच पायेगा।

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