शिल्पग्राम के कलाकारों की कहानी, उनकी ज़ुबानी
शिल्पग्राम उत्सव के आते ही सबसे पहले जेहन में आती है लोक कला . वहां जो संस्कृति की अनूठी मिसाल देखने को मिलती है वह कही और नहीं मिलती। हर प्रदेश के लोक नृत्य, लोक गायन व लोक कलाओं का अनूठा संगम है शिल्पग्राम जहां अनेक प्रदेशो के लोक कलाकार इस उत्सव में आते है। हम सभी उनकी कला को देखते और सराहते है पर उस कलाकार के रंगे हुए चेहरे के पीछे उसकी क्या कहानी है कभी सोचा है , उसका जीवन क्या है, उसके हस्ते हुए चेहरे के पीछे कौनसा दर्द छिपा है या उस चेहरे की ख़ुशी कभी जानना चाहा ?पर हमने चाहा और उनसे बात की।
बहरूपिये – सबसे पहले हमने बात की महाराष्ट्र अमरपुर से आए हुए सुभाष से जिन्होंने कुंती पुत्र भीम का रूप बना रखा था। वो किसी कला संसथान से नहीं जुड़े थे, बल्कि वे अपने दम पर रोज़ काम करते है उनका कहना था की इस काम से उनकी रोज़ी-रोटी भी बड़ी मुश्किल से चलती है। कभी काम मिलता कभी नही, कभी 100 कम लेते हा कभी 50 और कभी कुछ नही। वह अपने बच्चो को पढ़ना चाहते है उन्हें अपनी कला से नही जोड़ना चाहते है परन्तु वह शिल्पग्राम उत्सव में आकर खुश है व संतुष्ट है।
जयपुर के दौसा से आये शिवराज बहरूपिया पिछले 20 वर्षो से पश्चिम क्षेत्र संस्कृतिक केंद्र से जुड़े है और हर साल शिल्पग्राम उत्सव में आते है। साथ ही उनके बच्चे भी इसी कला से जुड़े है और वह भी शिल्पग्राम उत्सव में शामिल होते है। पर महज़ अपनी कला से शिवराज और उनके परिवार का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से होता है। इसलिए शिवराज चाहते हे उनके बच्चे कुछ और काम भी करे, परन्तु आर्थिक तंगी के कारण वो अपने बच्चो को शिक्षित भी नहीं कर सकते।
हम हमारी कला को लुप्त नहीं होने देना चाहते साथ ही हमारी आर्थिक स्थिति हमे मजबूर करती है की कुछ और काम ढूंढे जिसमे ज्यादा पैसा हो, अगर सरकार से आर्थिक सहायता मिले तो हमारे लिए हमारी कला से बढ़कर कुछ नहीं होगा। वैसे तो भारत सरकार ने कई बार उन्हें विदेशों में भी अपना हुनर दिखने का मौका दिया पर शिवराज कहते है कि वहां भी जितना एजेंट कमाते है उतना उन्हें नहीं मिलता। शिल्पग्राम में भी उन्हें रोज़ काम नहीं मिलता।
ठीक ऐसा ही कहना है नागौर से आये हुए श्रवण का जो की मसक बजाते है। वह चाहते है सरकार को उनके लिए और कार्यक्रमों और मेंलो का आयोजन करे उनके बुढ़ापे के लिए भी सरकार को सहारा देना चाहिए तभी लोक कलाएं जीवित रह सकती है।
मिटटी से अपनी कला दिखने वाले फिरोजपुर से आए हुए मोहन, मिटटी की अनूठी कलाकृतिया बनाते है वे 5 साल से शिल्पग्राम उत्सव में आते है यह उनका खानदानी काम है वे एस काम से खुश है परन्तु वे नही चाहते उनके बच्चे ये काम करे। वे अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर नौकरी करवाना चाहते है। उनका कहना है इस काम में जितनी मेहनत है वो बच्चे नही कर सकते दूसरा जिस गति से इमारते बन रही है भविष्य में अच्छी मिटटी मिलना ही मुश्किल हो जाएगा।
वही 12 व़ी में पढने वाले हल्दीघाटी के पास मौलेला गाव से आए हुए गोपाल कुमार जो की मिटटी के बर्तन बनाते है उनका कहना है माता-पिता यही काम करे परन्तु वह पढ़ लिखकर कोई बड़ा व्यवसाय करना चाहते है।
कठपुतली -अजमेर से आये सोहनलाल 6 वर्षो से शिल्पग्राम में कठपुतली का कार्यक्रम दिखाते हे। व इसके जरिये वह मलेरिया ,पोलियो,टीकाकरण का प्रचार भी करते है। वह शादी व पार्टियो में भी यह कार्यक्रम दिखाते है। यह कला उन्हें बुजुर्गो से विरासत में मिली है पर उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिलता इसी वजह से उनकी जीविका बड़ी मुश्किल से चलती है। वह कहते है शिल्पग्राम एक ऐसा पेड़ है जो सभी कलाकारों को फल खिला रहा है। उनकी सरकार से गुजारिश है सरकार उन्हें सहारा दे ताकि यह कला कभी खत्म न हो।
कितने कलाकार ऐसे है जो कला को आगे बढ़ाना चाहते है पर उनकी आर्थिक स्थिति उन्हें मजबूर कर देती है।सरकार को कलाकारो के लिए योजनाएं बनाकर उन्हें सहारा देना चाहिए।वही कितने कलाकार ऐसे है जो अपनी कला से हर रूप से संतुष्ट है और उनकी कला ही उनकी आय का स्त्रोत है।
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