क्या है लोकतंत्र की परिभाषा ?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण की वकालत और अंधश्रद्वा की खिलाफत करने वाले एम.एम. कलबरगी की जब अगस्त 2015 में दो बाईक सवारो ने हत्या कर दी तो मन में उलझन सता सी गई कि क्या दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देष में विरोध का यह भी विकल्प इज़ाद हुआ है ?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण की वकालत और अंधश्रद्वा की खिलाफत करने वाले एम.एम. कलबरगी की जब अगस्त 2015 में दो बाईक सवारो ने हत्या कर दी तो मन में उलझन सता सी गई कि क्या दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देष में विरोध का यह भी विकल्प इज़ाद हुआ है ?
यह कहना तब लाजमी हो जाता है जब फरवरी 2015 और अगस्त 2013 में अंधविष्वास के खिलाफ चला रहे मुहिम के लिए नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पानसरे के बाद ऐसी यह तीसरी वारदात है और जब कट्टरपंथी ताकते अभिव्यक्ति की आजादी पर इस तरफ फांसीवादी विरोध का सहारा ले।
21वी सदी के भारत मे भी दषको पहले की हिटलर-मुसोलिनी की तानाषाही सोच कट्टरपन्थी ताकतो के रूप मे उभरी है तो यह चिन्ता का विषय है। पर इन रवैयो के बीच सरकार प्रषासन की भुमिका भी निष्चित तौर पर संदेह के घेरे मे है। अगर कन्नड युनिवर्सिटी के कुलपति जैसे पदस्थ नागरिक की कई धमकियां मिलने के बाद हत्या की जाये तो यह प्रष्न भी जायज है कि सरकार प्रषासन किस तालमेल के साथ काम कर रहे है जबकि सिलसिलेवार तरीके से की गई यह तीसरी हत्या हो।
प्रश्न तो गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबरगी के हत्यारो से भी कि कौनसे राष्ट्र रचने की यह शुरूआत है? आखिर अभिव्यक्ति की आजादी पर इस तरह का हिंसक विरोध क्यों ? समाज कानुन की दषा बिगाड कर आखिर कट्टरपन्थी ताकते कौनसी दिषा मे अग्रसर है। अभिव्यक्ति की आजादी की हिंसक खिलाफत निष्चित तौर पर लोकतंत्र की हत्या है जो भारत जैस देष मे कतई स्वीकार नही हो सकती।
‘विचार कभी नही मरते‘‘ ये वो सोच है जो इन बुद्धिजीवीयो की शवयात्रा मे उमडी भीड को समझा जा सकता है। दरसल इस भीड मे वाकई कोई व्यक्तिगत शक्ल नज़र नही आती, दिखती है तो बस लोकतंत्र को जिन्दा रखने की झलक जो श्रद्धांजलि थी इन बुद्धिजीवीयों को यह वो चेहरे की झलक है जो 21वीं सदी के लोकतात्रिंक भारत मे कभी फिकी नही पडेगी, यह साबित हो गया।
बेषक लोकतंत्र की परिपाटी चली आयी है कि जब कोई विचार समाज के पटल पर रखा जाता है तो पक्ष विपक्ष का माहौल बनता है। पर फासीवादी विचारो के साथ चलने वाले कट्टरपन्थी ताकतो का इस तरह उभरना निन्दनीय है। लोकतंत्र को ज़रूरत होती है एक अच्छे वक्ता के समानुरूप एक अच्छे श्रोता की भी, न की कट्टरपन्थी सोच मे पनपे कलम के हत्यारो की।
सवाल तो मीडिया कार्यषैली पर भी है कि ऐसी हत्याओं के बाद शोकसभा की सीमित कवरेज दिखाकर विषेष मुद्दो पर रोषनी न डालते हुए इस तरह से तवव्जो न देना भी आष्चर्यजनक है, मीेडिया के लिए भी जरूरी है कलम की ताकत को बचाना और अभिव्यक्ति की आजादी का संरक्षण।
ऐसी हत्याओं के मद्देनजर जो परिवेष पनपा की कोषिष है उन सब मे व्यर्थ हो जाती है- लोकतंत्र की परिभाषा जिसमे निहित है अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन। मुझे समझ नही आता आखिर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक, रोड टोल टेक्स के खिलाफ अभियान को चलाने वाले और काला जादु टोना के विरोधी को सरेआम गोलियो का षिकार होना पडता है तो कौनसी भावनाएं इस कदर आहत हो जाती है जो लोकतंत्र समाज की परिपाटी के खिलाफ जाकर हिंसा का मार्ग अपना लेती है।
स्रकार प्रषासन मीडिया जैसे स्तंभो को सतत प्रयास और तालमेल से लोकतंत्र के वजुद सुरक्षित रखने के लिए अग्रसर होना होगा । साथ ही कट्टरपंथी ताकतो को भी संदेष है इन समाजसेवियों की शोकसभा मे उमडी भीड के रूप मे की तानाषाही फासीवाद की तलवार के आगे लोकतंत्र की कलम की स्याही बेषक कभी नही मिट सकती।
By: Gaurav Dwivedi
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