उदयपुर। राजस्थान की कला और संस्कृति अपने अनूठे अंदाज के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। इसी कला और संस्कृति का एक अभिन्न अंग बहरूपिया कला है, जो बच्चों के साथ साथ बड़ों के भी मनोरंजन के साधनों में से एक थी। वर्तमान में वेस्टर्न कल्चर के हावी होने के बाद बहरूपिया कला अब समय के साथ-साथ लुप्त होने लगी है।
वतर्मान समय में चोमू तहसील का एक परिवार बहरूपिया कला को अपनी इस परंपरागत संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं। वे हाल ही में सम्पन्न हुए उदयपुर के शिल्पग्राम महोत्सव में नए स्वांग रचकर दर्शकों का मनोरंजन करते रहे है।
जब UdaipurTimes Team ने शिल्पग्राम महोत्सव के दौरान विक्रम बहरूपिया से बातचीत की तो उन्होंने बताया की यह कला प्राचीन काल से चली आ रही है। पौराणिक ग्रंथों में भी इस कला के प्रचलित होने के प्रमाण मिलते हैं। यह भी माना जाता है कि राजा-महाराजा के अलावा मुग़लों ने भी इस कला को उचित प्रश्रय प्रदान किया था। विक्रम बहरूपिया अपने बेटे व पिता बाबू लाल के साथ मिलकर काम करते है।
वे बताते है की पहले के समय में उनके पूर्वजों के समय 51 स्वरूपों का हूबहू स्वांग रूप (Characters) लिया करते थे। परंतु अभी वे 11 स्वरूप (Characters) ही बदलते है। जेसे की रावण, डाकू, कंस, भोलेनाथ, लैला मज़नू, जानी-दुश्मन, चार्ली चैपलिन तो कभी पागल आदि पात्रों का रूप धारण करते है। उनका कहना है की समय के चक्र में यह परम्परा भी पीछे छूटती जा रही है। वे बताते है की उन्हे लोगों के चेहरे पर मुस्कान देख बहुत खुशी होती होती है। वे कहते है की हर साल मुझे उदयपुर के शिल्पग्राम महोत्सव में विशेष रूप से बुलाया जाता है। लोगों को मनोरंजन करने के लिए।
सबसे अनूठी कला है
हमारे देश की अनेक सांस्कृतिक परम्पराओं में से एक है-स्वांग रचने की कला, इस कला को बहुरुपिया कला के नाम से जाना जाता है। एक ही कलाकार द्वारा विभिन्न पात्रों का हूबहू स्वांग रचकर सीमित साधन, पात्रानुकूल वेशभूषा व बोली, विषयगत हाव-भावों का मनोरंजक प्रस्तुतीकरण बहुरुपिया कला को व्याख्यायित करता है। बहुरुपिया कलाकारों का अभिनय इतना स्वाभाविक होता है कि असल व नक़ल में भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है।
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