उदयपुर 22 अगस्त 2023। उदयपुर के नागरिक एवं आसपास के क्षेत्र के आदिवासी नेतृत्वकर्ता तथा उदयपुर संभाग एवं कोटा संभाग के जन संगठनों के प्रतिनिधियों ने वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 के संबंध में चर्चा करते हुए निष्कर्ष निकाला कि यह अधिनियम आदिवासियों की परंपरागत सामूहिक जमीन को उद्योगपतियों को देने के दरवाजे खोलता है।
साथ ही इस पर बात पर भी चर्चा की गयी की यह कानून संसद में बिना चर्चा के पास हुआ है। यह कानून एफ आर ए (वन अधिकार अधिनियम 2006) और पेसा कानून 1996 को कमजोर करता है जबकि यह दोनों कानूनों के बनने के बाद आदिवासियों में यह उम्मीद जगी थी की वह अपने जमीन की रक्षा कर पाएंगे और उससे अपना जीवन सुगम बना पाएंगे। इस कानून के आने के बाद यह उम्मीद धूमिल हो गई है सरकार ने एफ आर ए और पैसा कानून के प्रावधानों के तहत आदिवासियों को जो अधिकार दिए जाने थे वह पूरी तरीके से तो नहीं दिए गए और अब यह कानून लाकर उनकी जमीनों और उनके सामूहिक अधिकारों पर कुठाराघात किया है।
पीयूसीएल (People's Union for Civil Liberties)-उदयपुर, जंगल जमीन जन आंदोलन, आदिवासी विकास मंच, राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच, राजस्थान मजदूर किसान यूनियन, समता संवाद मंच एवं उदयपुर के नागरिकों द्वारा वन संरक्षण संशोधन अधिनियम में जो परिवर्तन किये गये उस पर सभा का आयोजन किया गया। सभा में उदयपुर, कोटड़ा, पई, झाड़ोल, रावतभाटा, कोटा, बूंदी एवं आसपास के आदिवासी क्षेत्रों के संगठन के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।
सभा में बोलते हुए जंगल जमीन जन आंदोलन के संयोजक एडवोकेट रमेश नंदवाना ने कहा कि उद्योगपतियों के लिए सरकार ने जंगल में जमीन आवंटन के दरवाजे खोल दिये है, उन्होंने कहा कि सरकार को आदिवासियों के अधिकारों को रिकार्ड करना था परन्तु उनका रिकार्ड नहीं किया गया है। जिससे आदिवासी लोग उनकी सामूहिक जमीन नहीं बचा पा रहे है। बिना सर्वे के पांचवी अनुसूची की जमीन आदिवासियों से छीनी जा रही है।
वीरेन लोबो ने कानून की धाराओं को समझाते हुए बताया कि इस कानून के माध्यम से कंपनी जमीन लेने के लिए आवेदन कर सकती है और सरकार द्वारा समानान्तर प्रक्रिया चलाकर ग्रामसभा की अहमियत को कमजोर किया जा सकता है। वन नीति में कंपनी को जंगल बनाने के लिए जगह दी जा रही है। जंगल कटने से जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई करने के लिए एनपीवी बनाई गई है परन्तु इस खाते में 2016 में 55 हजार करोड रुपये जमा थे, इसका मतलब जंगल बढ़ाने के लिए काम नहीं किया गया।
एडवोकेट अरूण व्यास ने कहा कि जंगल वहां के रहवासियों का ही था जब तक बाहर के लोगों का प्रवेश नहीं हुआ तब तक जंगल बचा रहा, उन्होंने कहा कि इस कानून के अन्तर्गत सेना को भी जंगल में जगह दी जायेगी जो आदिवासियों की निजता को खतरा है।
आदिवासी नेतृत्वकर्ता साधना ने कहा कि माईनिंग के नाम पर आदिवासियों का शोषण हो रहा है, चरागाह समाप्त हो रहे हैं। शंकर चौधरी ने कहा कि पूर्व के कानून में जो अधिकार दिये गये थे, उनको को तो लागू नहीं किया गया और वन संरक्षण संशोधन अधिनियम लाकर उनके अधिकारों को कमजोर किया जा रहा है।
आर.डी. व्यास ने कहा कि सरकार आदिवासियों को जंगल से हटाना चाहती है और जहां से उनकी आजीविका चलती है वह जमीन कंपनियों को देना चाहती है। मांगीलाल गुर्जर ने कहा कि पेसा कानून को प्रभावी तरीके से लागू करके आदिवासी अपनी जमीनों को बचा सकते है। सभा द्वारा तय किया गया कि वन संरक्षण संशोधन अधिनियम से आदिवासियों की जमीनों के संरक्षण के पक्ष में एक ज्ञापन जनजाति आयुक्त एवं जिला कलक्टर को देना तय किया गया है।
सभा में प्रभात सिन्हा, कुसुम मेघवाल, नारायण पारगी, सुनिल दुबे, हिम्मत चांगवाल, कमलाशंकर खराड़ी, हिम्मत सेठ आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
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